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४१९. पत्र: पेरिन कैप्टेनको

सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
१८ अक्टूबर, १९२८

तुम्हारे दो पत्र मिले। तुम मेरे साथ कलकत्ता जरूर आओ और जो भी वस्तुएँ बेचना चाहो अवश्य बेचो, मगर प्रदर्शनीमें नहीं।

श्रीमती पी॰ बैरमजी मुझसे नागपुरमें मिली थीं और उन्होंने काफी खादी खरीदी थी। इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कह सकता। बस इतना ही। भरोसा रखने या न रखनेका कोई सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि हमारा तो नियम ही है कि हम नकद दामोंपर ही खादी बेचें।

काकासाहबसे बात हुई थी। उनका कहना है कि उनको बिलकुल भी याद नहीं पड़ता कि उन्होंने कभी तुमको कोई ऐसा वचन दिया था या विद्यापीठमें खादी बेचनेकी अपनी योग्यताके बारेमें तुमसे कोई बात की थी। और कसीदेके कामकी खादीके लिए तो उनको ग्राहक मिल ही नहीं सकते। क्या उन्होंने तुमसे कहा था कि उनका कोई अपना भण्डार है?

मैं भला-चंगा हूँ।

श्रीमती पेरिन कैप्टेन

अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १३५५९) की माइक्रोफिल्मसे।

४२०. पत्र: एल॰ वी॰ पटनायकको

सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
१८ अक्टूबर, १९२८

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। मेरेतई कर्मभूमिका अर्थ मौज-मजे और सुख-भोगकी भूमि नहीं, बल्कि त्यागके भावसे, यज्ञके भावसे कर्म करनेके आनन्दकी भूमि है।

सीता सूत कातती थी―ऐसा कहनेका मेरे पास एक प्रमाण यह है कि इतिहास हमको बतलाता है कि उस कालमें प्रत्येक घरमें एक चरखा रहता था। तब सीताके घरमें चरखा नहीं होगा―ऐसा माननेका कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत एल॰ वी॰ पटनायक
डाकघर―दिगपाहण्डी (गंजाम)

अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १३५६०) की माइक्रोफिल्म से।