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४३०. ‘ऋषियोंका आश्रम’

दीनबन्धु एन्ड्रयूजने इस शीर्षकसे यूरोपसे एक लेख भेजा है, जो ‘यंग इंडिया’ में[१] प्रकाशित हुआ है।

जर्मनीके मार्बर्ग नगरमें एक विद्यापीठ है। इसीको उक्त लेखमें दीनबन्धु एन्ड्रयूजने ऋषियोंका आश्रम कहा है। इसमें ऋषि-जीवन बितानेवाले एक वयोवृद्ध अध्यापकका वर्णन पठतीय है। मार्बर्गके इस विद्यापीठमें वेदोंका अध्ययन बड़े पैमानेपर करवाया जाता है। जो अध्यापक यहाँ अध्ययन करते हैं उनके जीवनपर वेदोंकी इतनी गहरी छाप पड़ी जान पड़ती है कि वे स्वयं ऋषियों-जैसे आचारका पालन करते हैं। इन अध्यापकोंमें अध्यापक ओटो प्रधान हैं। उनका वर्णन निम्न प्रकार है:

कुछ देर के लिए ही सही, मैं अध्यापक ओटोका अतिथि भी रहा और उससे मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। अध्यापक ओटो बाल-ब्रह्मचारी हैं। उन्होंने विवाह ही नहीं किया। उन्होंने अपना सारा जीवन वेदाभ्यास में ही लगा दिया है। उनके बाल सफेद हो गये हैं। उनकी बहन, जो लगभग उन्हींकी आयुकी होंगी, उनका घर सँभालती हैं। मुझे तो वे माँ-जैसी लगीं। क्योंकि उन्होंने माँकी तरह प्रेमपूर्वक मेरी पूरी देखभाल की। अध्यापक ओटो कई बार हिन्दुस्तान जा चुके हैं। उनसे मिलनेपर हिन्दुस्तान के बारेमें बातें हुईं। मैंने देखा कि भारतके बारे में बातें करते हुए उनके चेहरेपर आनन्द छाता चला गया। इससे मैं समझ सका कि उन्हें हिन्दुस्तानसे कितना प्रेम है, हालाँकि हिन्दुस्तान में रहने से उनका स्वास्थ्य खराब हो गया था। १९१२ में मलेरियाने उन्हें इस तरह घर दबाया था कि वे अब भी उससे पूरी तरह पीछा नहीं छुड़ा सके हैं; और पिछले वर्ष जब वे हिन्दुस्तान आये थे तब तो इतने सख्त बीमार हो गये और इतने दिन चारपाईपर पड़े रहे कि अबतक भी उनका स्वास्थ्य सँभला नहीं है― फिर भी उन्हें हिन्दुस्तान के सपने तो आते ही रहते हैं। उन्होंने भारतीय सभ्यताका अत्यन्त सूक्ष्म अध्ययन किया है। हिन्दू धर्मके गम्भीर अध्ययन के लिए उन्होंने वेद, उपनिषद् और ‘गीता’को ही नहीं, पुराणोंको भी पढ़ा है। उन्होंने हिन्दू धर्मकी आधुनिक स्थितिके विषयमें भी खोज-बीन की है। हिन्दुस्तान की कई बातोंके उनके सूक्ष्म ज्ञानसे में आश्चर्यचकित रह गया। किन्तु उसका कारण यह है कि उन्होंने किसी-न-किसी प्रकार अपना सम्पूर्ण जीवन शोधमें बिता दिया है। संस्कृत उनके लिए मातृभाषा-जैसी है और आवश्यकता पड़नेपर वे संस्कृत में बातचीत कर सकते हैं।
  1. तारीख ११-१०-१९२८ के अंकमें।