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‘ऋषियोंका आश्रम’

 

यह तो मैंने एक ही ऋषिके जीवन-वृत्तका अनुवाद दिया है। मुझे लगता है कि यूरोपमें, मुख्यतः जर्मनीमें, कुछ विद्वान् जिस भाव, लगन और सचाईसे वेदों तथा अन्य हिन्दू ग्रन्थोंका अध्ययन और मनन करते हैं, उसका यहाँ आज लगभग लोप ही हो गया है, यह बात हमें लज्जापूर्वक स्वीकार करनी चाहिए। यहाँ ऋषियोंके जीवनका अनुकरण तो बहुत कम दिखाई देता है और केवल अध्ययनकी ही खातिर आडम्बरके बिना सहज भावसे ब्रह्मचर्यका पालन आज कहाँ देखनेमें आता है? बहन भाईका साथ देनेके लिए कुमारी रहती और उसका घर सँभालती है; यह बात कैसी हर्षोत्पादक और वातावरणको पवित्र करनेवाली है! कुछ दिन पहले अमेरिकाके एक प्राध्यापकने बम्बईके ‘टाइम्स’ समाचार-पत्र में अपना अनुभव लिखा था। यह प्राध्यापक भी संस्कृतका विद्वान् है। उसने लिखा है, मैं भारतमें बहुत आशा लेकर आया था; किन्तु यहाँ आनेके बाद मुझे यहाँके अनुभव होनेपर और संस्कृतके पण्डितोंसे मिलनेपर निराशा हुई। उसके इस कथनमें अत्युक्ति है, उसकी यह धारणा उतावलीमें बनी हुई है, और उसमें भारत में रहनेवाले यूरोपीयोंके वातावरणका प्रभाव है। किन्तु इस सबको छोड़कर जो शेष रहता है उसमें भी मुझे सत्यका अंश दिखाई दिया है और उससे मुझे लज्जा अनुभव हुई है। यदि हममें सच्ची धार्मिक जागृति हो और हमारी प्राचीन संस्कृतिमें जो-कुछ सत्य, शिव और सुन्दर है, उसको संग्रह करनेकी धुन हो तो हमारी स्थिति जैसी आज है उससे भिन्न ही होगी। ऋषि निर्भय होकर वनमें रह सकते थे। उनके लिए ब्रह्मचर्यका पालन सहज कार्य था। आज तो हम शहरोंमें भी निर्भय होकर नहीं रह सकते। हमें ब्रह्मचर्यका पालन विचित्र लगता है और स्थिति यह है कि परिश्रमपूर्वक ढूँढ़नेपर ही शायद कोई सच्चा ब्रह्मचारी मिले। ब्रह्मचारिणियाँ तो मिल ही कैसे सकती है? इससे एक क्षणके लिए मनमें यह धारणा बन जाती है कि इस समय भारत ऋषि-भूमि नहीं रहा है और ऋषि यूरोपके किसी कोनेमें रहने लगे हैं।

इस लेखका हेतु यह नहीं है कि कोई इसे पढ़कर जर्मनी अथवा कहीं अन्यत्र जाकर ऋषि बननेका प्रयत्न करे। यदि कोई ऐसा प्रयत्न करेगा तो उसका प्रयत्न विफल होगा। कोई भारतीय जर्मनी जाकर ऋषि बन सकता है, यह बात मेरी कल्पनामें नहीं आ सकती। भारतीयोंको तो भारतमें रहते हुए अध्यापक ओटो-जैसे लोगोंका अनुकरण करके ऋषियोंकी संस्थाका पुनरुद्धार करना होगा। कहा जा सकता है कि इस दिशामें आर्यसमाजने भगीरथ प्रयत्न किया है। किन्तु समूचे देशको देखते हुए यह प्रयत्न सागरमें बिन्दुवत है। देशमें ऐसे अनेक महान् प्रयत्न किये जायें तभी हमें अपनी प्राचीन सभ्यताकी खोई हुई चाबी पुनः मिल सकती है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २१-१०-१९२८