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४३२. टिप्पणियाँ

सजा कब दी जाये?

विनयमन्दिरके एक शिक्षक पूछते हैं:[१]

मेरी सलाह तो यह है कि विद्यार्थियोंको किसी भी तरहकी सजा देना अनुचित है। विद्यार्थियोंके प्रति शिक्षकोंके दिलमें जो आदर तथा शुद्ध प्रेम होना चाहिए उसमें ऐसा करनेसे न्यूनता आ जाती है। सजा देकर विद्यार्थियोंको सिखानेकी पद्धति क्रमशः उठती चली जा रही है। मैं जानता हूँ कि कई-एक प्रसंग ऐसे होते हैं जब बड़ेसे-बड़े शिक्षक भी सजा दिये बिना नहीं रह पाते। परन्तु वह अपवाद गिना जा सकता है, और उसका समर्थन किसी भाँति नहीं होना चाहिए। शारीरिक सजा देनी पड़े, यह भी एक बड़े शिक्षक की कलाकी न्यूनता मानी जायेगी। स्पेंसर-जैसों ने तो सजामात्रको अनुचित माना है। यों अपने सिद्धान्तोंपर वह भी हमेशा अमल करनेमें समर्थ नहीं हो पाया था। इस उत्तरके बाद उपर्युक्त प्रश्नोंका विस्तृत जवाब देनेकी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।

सामान्यतः सजा अहिंसाके साथ मेल नहीं खाती। मैं ऐसे उदाहरण दे सकता हूँ कि अमुक हालतमें दी गई सजाको सजा नहीं माना जा सकता। परन्तु वे उदाहरण शिक्षकोंके लिए अनुपयोगी हैं। जैसे कोई पिता अत्यन्त दुःखी होकर दुःखमें अपने पुत्रको सजा दे डाले, तो यह प्रेमकी सजा है। पुत्र भी उसे हिंसा नहीं मान सकता। अथवा सन्निपातमें बकवास करनेवाले रोगीको कभी-कभी शुश्रूषा करनेवाले लोग एकाध चाँटा लगा देते हैं; उसमें हिंसा नहीं, अहिंसा है। परन्तु ये दृष्टान्त शिक्षकके लिए निरुपयोगी हैं। उनके लिए बिना मारे विद्यार्थियोंको पढ़ानेकी तथा अनुशासित रखनेकी कला सीखना आवश्यक है। ऐसे शिक्षकोंके उदाहरण मौजूद हैं जिन्होंने कभी किसी विद्यार्थीको पीटा ही नहीं। शारीरिक सजाके सिवा और सजाएँ भी हैं; जैसे विद्यार्थीको अपमानित करना, उससे बैठकें लगवाना, अँगूठे पकड़वाना, उसे गालियाँ देना वगैरह। इन सभी प्रकारकी सजाओंको मैं वर्ज्य मानता हूँ।

विद्यार्थियोंको सुधारनेके लिए सजा देना और फिर पश्चात्ताप करना पश्चात्ताप नहीं है। सजासे सुधार किया जा सकता है, ऐसी मान्यता विद्यार्थीके मनमें पैदा करने और स्वयं शिक्षक द्वारा अपने मनमें रखनेसे वह समाजमें रूढ़ हो जाती है; हिंसा-बलके द्वारा सुधार करनेका मिथ्या भ्रम इसीसे पैदा हुआ है। मेरी तो यह धारणा है कि जो राष्ट्रीय शिक्षक जान-बूझकर सजाका उपयोग करता है, वह अपनी प्रतिज्ञा भंग करता है।

 
  1. अनुवाद यहाँ नहीं दिया जा रहा है। लेखकने शिक्षा अथवा नीति-विषयक चूक होनेपर विद्यार्थियों को, विशेषतः राष्ट्रीय शालाओं के विद्यार्थियोंको, शारीरिक दण्ड देनेके औचित्यके विषय में प्रश्न किये थे।