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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

बोल्शेविज्म

विद्यापीठमें कुछ प्रश्न पूछे गये थे; उनमें से कई प्रश्नोंके अभीतक उत्तर देने हैं। जगहकी कमीसे उन्हें मैंने मुल्तवी कर रखा था। आज उनमें से एक लिया जा सकता है। प्रश्न इस प्रकार है:

बोल्शेविज्ममें सामाजिक, आर्थिक रचना-सम्बन्धी जो विचार हैं, उनके बारेमें आप क्या सोचते हैं? हमारे देशको उन विचारोंमें से भविष्यके लिए क्या-कुछ स्वीकार करना चाहिए?

मुझे कबूल करना चाहिए कि आजतक मैं बोल्शेविज्मके अर्थको पूरी तरह नहीं समझ पाया हूँ। परन्तु जो कुछ मैं जानता हूँ वह यह है कि निजी मिल्कियत किसीके पास न हो―प्राचीन भाषामें कहें तो व्यक्तिगत परिग्रह न हो। यह बात यदि सभी लोग अपनी-अपनी इच्छासे कर लें तब तो इसके जैसा कल्याणकारी काम दूसरा नहीं हो सकता। परन्तु बोल्शेविज्ममें जोर-जबरदस्तीसे काम लिया जाता है, ऐसा दिखाई पड़ता है। जबरदस्ती निजी मिल्कियत जब्त की गई है और उसपर पशुबलके द्वारा ही राज्यका कब्जा है।

यदि यह बात सच हो तो मेरा दृढ़ विश्वास है कि जबरदस्तीसे साधा गया यह व्यक्तिगत अपरिग्रह दीर्घ कालतक नहीं टिक सकता। पशुबल द्वारा साधी गई एक भी चीज आजतक दीर्घ काल-पर्यन्त न तो निभ सकी है और न निभेगी। मेरे कहनेका अभिप्राय यह हुआ कि बोल्शेविज्मको जिस रूपमें मैंने जाना है वैसा बोल्शेविज्म लम्बी मुद्दततक टिका नहीं रह सकता।

तथापि बोल्शेविज्मकी साधनामें असंख्य मनुष्योंने आत्मबलिदान किया है, लेनिन-जैसे प्रौढ़ व्यक्तिने अपना सर्वस्व उसपर निछावर कर दिया था; ऐसा महात्याग व्यर्थ नहीं जा सकता और उस त्यागकी स्तुति हमेशा की जायेगी।

स्वर्गीय दलसुखभाई शाह

पिछले सप्ताह गोधराके वकील श्री दलसुखभाई शाहका देहान्त हो गया। इसकी खबर देते हुए मामा साहब लिखते हैं:[१]

स्वर्गीय दलसुखभाईसे मेरा व्यक्तिगत परिचय था। उनकी सज्जनताका मुझे पूरा-पूरा परिचय प्राप्त हो चुका था। श्री पुरुषोत्तमदास शाहके देहान्तके बाद पंचमहालको जो यह दूसरी हानि उठानी पड़ी है वह तो असह्य ही मानी जायेगी। दोनों सज्जन पंचमहालके जीवनकी शोभा बढ़ानेवाले और जनताके सच्चे सेवक थे। परन्तु आज नहीं तो कल सभीको मृत्युकी गोदमें तो जाना ही है। जैसा मामा साहबने लिखा है, इस कमीको पूरा करनेका काम युवक-वर्गका है। फिर स्वर्गीय दलसुख-

  1. यहाँ नहीं दिया जा रहा है। मामा साहब फड़केने लिखा था कि दिवंगत सज्जन एक आदर्श वकोल थे। वे अपनी जीविका प्रामाणिकतासे अर्जित करते थे, अपनी आवश्यकता-भर सूत स्वयं कातकर पहनते थे और असहयोग आन्दोलनके समय उन्होंने वकालत भी छोड़ दी थी।