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जैन अहिंसा?

भाईका बड़ा बेटा चि॰ नगीनदास विद्यापीठका स्नातक है और इस प्रकार उसपर पुत्रके नाते पिताके नामको उज्ज्वल करने और चारित्र्यकी जो विरासत वे छोड़ गये हैं। उसमें वृद्धि करनेका दुहरा कर्त्तव्य आ पड़ा है। विद्यापीठके स्नातकके रूपमें पंचमहालमें सेवकोंके रिक्त स्थानको भर कर विद्यापीठकी शोभा बढ़ाना उसका विशेष कर्त्तव्य हो गया है। ईश्वर उसे इसका पालन करनेकी शक्ति दे और दिवंगत आत्माको शान्ति तथा कुटुम्बी जनोंको धीरज दे।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २१-१०-१९२८
 

४३३. जैन अहिंसा?

एक जैन मित्रने, जिन्होंने जैन दर्शन तथा दूसरे दर्शनोंका अभ्यास किया है, इस चर्चाके विषयमें एक लम्बा पत्र लिखा है। पत्र विचारणीय है और बड़े विनय तथा शान्तिसे तर्क उपस्थित करनेवाले पत्रोंमें से एक है; इसलिए उसका सारांश नीचे दे रहा हूँ। ये मित्र लिखते हैं:

आपका अहिंसाका अर्थ लोगोंको किंकर्त्तव्यमूढ़ बना देता है। हिंसाका सामान्य अर्थ किसी भी प्राणीके प्राण ले लेना है और ऐसा न करना अहिंसा है। किसी भी जीवको पीड़ा न देना अहिंसा शब्दका अर्थ-विकास है। अब अहिंसा शब्दके अर्थमें किसी भी तरहके प्राणहरणका समावेश हो, यह बात मेरे गले नहीं उतरती। इसका अर्थ यह न लगायें कि मैं ऐसा मानता हूँ कि किसी भी परिस्थितिमें किसी भी प्रकारसे प्राणहरण उचित नहीं गिना जायेगा। वस्तुतः नीतिका कोई भी नियम बिलकुल निरपवाद है, ऐसा मुझे प्रतीत नहीं होता। ‘अहिंसा परमो धर्मः’, यह महान् दिशासूचक धर्म है, किन्तु अहिंसा ही परम धर्म है, ऐसा नहीं कह सकते। इसीसे आप जिसे अहिंसक प्राणहरण कहकर समझाते हैं वह धर्म हो सकता है; परन्तु उसे अहिंसक कर्म नहीं गिना जा सकता।

मेरा तो ऐसा अभिप्राय है कि जिस प्रकार जीवनका विकास होता है, उसी प्रकार शब्दोंके अर्थका भी विकास होता है। इसे हम प्रत्येक धर्मसे अनेक दृष्टान्त देकर सिद्ध कर सकते हैं। हिन्दू धर्म में ऐसा एक शब्द ‘यज्ञ’ है। श्री जगदीशचन्द्र बोसके प्रयोग शब्दोंके अर्थ में क्रान्ति पैदा कर रहे हैं। उसी तरह यदि हम अहिंसाकी साधना करना चाहते हों तो हमें अहिंसा शब्दके अर्थसमुद्र में कूद ही पड़ना होगा। अपने पूर्वजोंकी विरासत में वृद्धि करना ही हमारा धर्म है। ‘अहिंसा परमो धर्मः’ सूत्रको हम नहीं सुधार सकते; परन्तु यदि हम उस पूँजीके वारिस बने रहना चाहते हैं तो हमें उसमें निहित अमित शक्तिकी खोज करते रहना चाहिए। फिर भी मैं शब्दके झगड़ेमें पड़ना नहीं चाहता। मैंने जिस परिस्थितिका वर्णन किया है, उसमें प्राणहरण अहिंसक कर्म न गिना जाये और धर्म माना जाये तो मैं उसका विरोध करना नहीं चाहता।