पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 37.pdf/४३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४००
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

इन मित्रकी दूसरी शंका यह है:[१]

पुत्री अपवित्र हो जायेगी, इस भयसे मैं उसके प्राणहरण नहीं कर सकता; परन्तु यदि वह अपनी राय बतला सकती हो और अगर मैं यही समझूँ कि वह प्राण-त्यागको श्रेयस्कर ही मानेगी, तो मैं उसके प्राणहरण करूँगा। लोकापवादसे डरकर यदि वह ऐसी याचना करेगी तो मैं उसे अवश्य रोकूँगा। परन्तु यदि वह किसी व्यभिचारीकी जबरदस्तीके वश होनेके बदले अपनी ही इच्छासे मृत्युकी भेंट करना चाहती है, ऐसा देखकर ही मैं उसके प्राणहरण करूँगा। सीता स्वतन्त्र रीतिसे ऐसी याचना ही करती, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। अमुक परिस्थितिमें वीर पुरुष मृत्युको विशेष पसन्द करता है ऐसा हम जानते हैं; और यह उचित ही है। मैं असत्य भाषण करनेकी अपेक्षा मृत्युको ही अधिक पसन्द करूँगा। मैं व्यभिचार करनेकी अपेक्षा मृत्युको ही अधिक पसन्द करूँगा। मेरी मान्यता है कि शास्त्रोंकी भी यही आज्ञा है। ऐसी मृत्यु हजारों अथवा लाखों चाहते हैं, ऐसा मेरा अनुभव है; और इस विचारका विस्तृत प्रचार करना मैं आवश्यक समझता हूँ। शीलभंग और दूसरे अंगके भंगमें कोई भेद नहीं है, मैं इस बातको स्वीकार नहीं कर सकता। परन्तु अंग-भंगके विषयमें भी ऐसी वस्तुस्थितिकी कल्पना की जा सकती है कि जब मनुष्य उस अंग-भंगकी अपेक्षा मृत्युको अधिक प्रिय माने।

तीसरी शंका यह है:

अमुक परिस्थितिमें बन्दरोंको मार डालनेका अन्तिम उपाय विचारनेके बदले साधारण तौरसे दो-चारको जख्मी करनेका उपाय या उसका विचार आप असह्य क्यों मानते हैं? अनेक अंधे-लूले एवं असाधारण दर्दसे घिरे हुए प्राणियों में भी जीवित रहनेकी वृत्ति प्रबल होती है, क्या आप यह नहीं मानते? हम किसीका दुःख न देख सकें, इससे उसे मार डालनेका विचार करनेका कारण हमारी एकान्त स्वार्थ बुद्धि ही है, क्या आप ऐसा नहीं मानते?

दो-चार बन्दरोंको जख्मी करनेका विचार भी मुझे असह्य लगता है, क्योंकि दूसरे प्राणियोंके अनुभवसे मैं जानता हूँ कि उन बन्दरोंको आखिर पीड़ित होकर मरना ही होगा। और यदि मैं किसीको मारना उचित मान लूँ तो उसे दुःखी करके मारनेकी अपेक्षा तत्क्षण मार डालना ही मैं अधिक पसन्द करूँगा। मैं शायद जख्मी बन्दरोंके लिए अस्पताल खोलनेकी बात न सोचूँ, फिर भी उन्हें जख्मी करनेमें दया-धर्म कहाँ है, यह मेरी समझके बाहर है। जो अंधे-लुले इत्यादि जीवित रहनेकी

  1. यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पत्र-लेखकने गांधीजी के “पावककी ज्वाला” (३०-९-१९२८) शीर्षक लेख तथा कुछ अन्य लेखोंको पढ़कर यह शंका उठाई थी कि कोई अपनी पुत्रीपर बलात्कार करनेवालेको मारे, यह तो समझमें आता है, लेकिन पुत्रीको मारे, यह समझमें नहीं आता। उसके अनुसार, जिसपर बलात्कार हुआ हो वह लोकापवादके भय से स्वयं चाहे तो भी उसे मरने नहीं देना चाहिए। पत्र-लेखकके विचारसे किसीका अंग-भंग कर दिया जाये या उसपर बलात्कार किया जाये, दोनों में कोई अन्तर नहीं है।