वत्ति रखते हैं उन्हें ऐसा ज्ञान है कि कोई-न-कोई उन्हें सहायता देगा ही। परन्तु किसी अन्धेको हम वीरान जंगलमें छोड़ आयें और यह मानें कि वह नास्तिक है और उसे विश्वास है कि उसे किसीकी भी मदद मिलनेवाली नहीं है तो ऐसी परिस्थिति में मैं यह नहीं मानता कि वह जीवित रहना चाहेगा। किसी भी परिस्थिति में प्राणीकी जीवित रहनेकी इच्छाको बल प्रदान करना ही चाहिए, मैं ऐसा धर्म स्वीकार नहीं करता।
चौथी शंका यह है:
- जैन धर्मका अहिंसाका विचार तीन सिद्धान्तोंपर आधारित है:
- १. ऐसी कोई परिस्थिति हो ही नहीं सकती जिसमें चाहे जैसी पीड़ा होनेपर भी कोई भी प्राणी समझ-बूझकर जीवित रहने की आशाका त्याग करके दूसरोंके हाथसे मृत्यु चाहे। इसलिए इस भाँतिके प्राणहरणको कभी धर्म न गिनना चाहिए।
- २. हिंसासे भरी हुई अनेक प्रवृत्तियोंसे व्याप्त इस संसार-व्यवहारमें मुमुक्षु प्राणीको चाहिए कि जहाँतक सम्मव हो, बहुत कम प्रवृत्तियोंका सूत्रधार बनकर अहिंसाका आचरण करे।
- ३. कुछ-एक हिंसाएँ प्रत्यक्ष होती हैं और कुछ-एक अप्रत्यक्ष। उदाहरण-स्वरूप, खेती करनेमें प्रत्यक्ष हिंसा है। अन्न खानेमें खेतीसे सम्बन्ध रखनेवाली अप्रत्यक्ष हिंसा है। दो प्रकारको इस हिंसा में जहाँ एकसे भी बच सकनेका उपाय ही न हो, वहाँ प्रत्यक्ष हिंसासे यथाशक्ति दूर रहकर सुज्ञ मनुष्यको चाहिए कि वह अहिंसा-धर्मका पालन करे।
- इन तीन सिद्धान्तोंकी आप अवश्य चर्चा करेंगे। क्योंकि जैनियोंकी अहिंसा-दृष्टि और आपकी अहिंसा-दृष्टिमें एक महत्त्वपूर्ण भेद यह दिखाई पड़ता है कि जैनियोंकी अहिंसा-दृष्टि निवृत्तिपर आधारित है; जब कि आपकी अहिंसा-प्रवृत्ति पर वर्तमान काल-धर्म-कर्मपरायण है; इसलिए यदि अहिंसा, देश और कालसे अबाधित धर्म हो तो अभी तक अहिंसाका विचार निवृत्तिकी ओर झुकनेकी दृष्टि से ही किया गया है। उसका कर्मप्रधान वर्तमान युगमें क्या स्वरूप हो सकता है और उसको व्यवहारमें कैसे लाया जा सकता है, इस विषयपर लोगोंमें विचार-जागृति करनेकी मुझे परम आवश्यकता प्रतीत होती है।
ऐसी सिद्धान्त-चर्चामें उतरना मुझे प्रिय नहीं है। ऐसी चर्चा करनेमें हानि भी हो सकती है, यह मैं जानता हूँ। परन्तु कुछ अंशोंमें यह चर्चा स्वयं मैंने ही उठाई है; इसलिए इन मित्रकी इच्छित सिद्धान्त-चर्चासे मैं सर्वथा इनकार नहीं कर सकता। पहले सिद्धान्तके विषयमें मैं अपनी नम्र मान्यता इसी लेखमें प्रकट कर चुका हूँ। मेरी ऐसी भी मान्यता है कि चाहे जैसी दशा क्यों न हो, जीनेकी इच्छा प्राणी छोड़ ही नहीं सकता, इस सिद्धान्तको मान लेनेमें हमारी भीरुता छिपी हुई है और उसीके