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सम्पूर्ण गांधी वाङ्म

कारण बहुत हिंसा हुई है और हो रही है और यदि ऐसे सिद्धान्तोंका प्रतिपादन होता रहा तो जो हिंसा हो रही है वह बढ़ेगी, घटेगी नहीं। मुझे प्रतीत होता है कि जिस तरहसे पहला सिद्धान्त यहाँ रखा गया है वह यदि सचमुच सिद्धान्त ही हो तब तो वह मोक्षका विरोधी है। जो मनुष्य निरन्तर मोक्षकी याचना किया करते हैं वे हमेशा दूसरोंकी मृत्युके आधारपर अपनी देह बनाये रखना नहीं चाहेंगे। मुमुक्षु तो इस जगत् में पर्याप्त संख्या में हैं ही। वे जीवित रहनेकी आकांक्षाको छोड़े चुके हैं, ऐसा हमें मानना ही पड़ेगा। तब उक्त मित्रके बताये सिद्धान्तका ये मुमुक्षु भंग तो नहीं करते? अथवा इस मित्रने उक्त सिद्धान्तको शायद इस तरह रखना न चाहा हो। जिन्होंने मोक्षको बुद्धिसे भी नहीं जाना है ऐसी मूर्च्छावस्था में पड़े हुए प्राणी जीवित रहने की आकांक्षा नहीं छोड़ सकते। ऐसी आकांक्षा रखनेवालों के बीच जिसने आकांक्षाका त्याग किया है, ऐसा मुमुक्षु अपना स्वार्थ साधने या अपनी देहकी रक्षा करने क्यों आयेगा? यदि मैं इस मोक्ष-प्रकरणको छोड़कर स्वदेश-प्रेम अथवा कौटुम्बिक प्रेमके क्षेत्रका विचार करूँ तब भी मालूम पड़ता है कि जिन्होंने जीवित रहनेकी आकांक्षा छोड़ दी है, ऐसे अनेक देश-प्रेमी, कुटुम्ब-प्रेमी, जगत-प्रेमी अपने-अपने कर्त्तव्यके प्रति परायण रहते हैं। आज इस दुनिया में जीवित रहनेकी आकांक्षा छोड़नेकी शिक्षा दी जा रही है। हर अवसरपर जीवित रहनेकी आकांक्षाको साथ लिये फिरनेमें मैं तो स्वार्थकी पराकाष्ठा देखता हूँ। मेरे इस कथनका कोई अनर्थ न कर बैठे। उस आकांक्षाका त्याग किसीसे जबरदस्ती नहीं कराया जा सकता। यहाँ तो मैं सिर्फ जीवित रहने की आकांक्षा के सिद्धान्तके विरुद्ध दृष्टान्त दे रहा हूँ, और उस सिद्धान्तमें निहित अनर्थको सामने रख रहा हूँ।

दूसरा सिद्धान्त, उसे सिद्धान्त कहें अथवा और कुछ, मुझे मान्य है।

तीसरे सिद्धान्तको मित्रने जिस प्रकार रखा है उसमें तो मैं बहुत दोष देख रहा हूँ। उस सिद्धान्तका भयंकर नतीजा तो यह निकलता है कि जिस खेतीके बिना मनुष्य जीवित ही नहीं रह सकता, वह खेती, अहिंसा-धर्मका पालन करनेवाले को उसीपर निर्भर रहने के बावजूद त्याग ही देनी चाहिए। ऐसी स्थिति मुझे अतिशय पराधीनतापूर्ण और करुणाजनक प्रतीत होती है। खेती करनेवाले असंख्य मनुष्य अहिंसा-धर्मसे विमुख रहें और खेती न करनेवाले मुट्ठी-भर मनुष्य ही अहिंसाको सिद्ध कर सकें, ऐसी स्थिति मुझे परम धर्मको शोभनेवाली अथवा उसे सिद्ध करनेवाली नहीं मालूम होती। इससे विपरीत, मुझे तो यह प्रतीत होता है कि सुज्ञ मनुष्य जबतक खेतीका सर्वव्यापक उद्योग नहीं अपनाते तबतक वे नाम मात्रके ही सुज्ञ हैं। वे अहिंसाकी शक्तिका सच्चा माप निकालने में असमर्थ हैं। उनमें खेती-जैसे व्यापक उद्योग में लगे हुए असंख्य मनुष्योंको धर्मकी राहपर लगाने की योग्यता नहीं है। यदि यह सचमुच सिद्धान्तमें गिनी जानेवाली वस्तु हो तो अहिंसाके उपासकका कर्त्तव्य है कि वह उसके बारेमें बार-बार विचार करे। खेतीके दृष्टान्तका जरा विस्तार करें तो परिणाम हास्यजनक आता है। साँपको मारे बिना यदि चल ही नहीं सकता तो मुझे उपर्युक्त सिद्धान्तानुसार उसे दूसरेसे मरवाना चाहिए; चोरको सजा देकर भगाना अनिवार्य हो तो उस