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जैन अहिंसा?

हालत में मुझे दूसरोंसे उसे दंड दिलाना चाहिए; मेरे संरक्षणमें रहनेवाले बालकों और बालिकाओंकी अत्याचारी मनुष्योंसे रक्षा करना अनिवार्य हो तो मुझे वह भी दूसरोंसे करवानी चाहिए, और इस प्रकार ‘अहिंसा-धर्मका पालन करना चाहिए’। मेरी दृष्टिमें यह धर्म नहीं, अधर्म है; यह अहिंसा नहीं, हिंसा है; ज्ञान नहीं, मोह है। मैं स्वयं जबतक साँपका, चोरका, अत्याचारीका सीधे मुकाबला नहीं करता तबतक मैं भयमुक्त नहीं होनेका, और जबतक मैं भयमुक्त नहीं होता तबतक अहिंसा-धर्मका पालन मेरे लिए वन्ध्यापुत्रके अस्तित्व-जैसा ही रहेगा। और अहिंसा-धर्मका जो एक महापरिणाम निकलना चाहिए वह तो कभी निकल ही नहीं सकता। अहिंसाके विषय में शास्त्रोंकी शिक्षा तो यह है कि उसके सान्निध्यमें चोर चोरी छोड़ेगा, हिंसक मनुष्य अथवा दूसरा प्राणी हिंसा छोड़ेगा, जुल्मी जुल्म छोड़ेगा। इस शिक्षाका यत्किचित् पालन करनेसे भी मैं सत्यका अनुभव कर सका हूँ। इसीसे मुझे मालूम होता है कि तीसरे सिद्धान्तको प्रस्तुत करनेके रूप में कुछ भूल हुई है। और यदि भूल न हुई हो तथा यह वास्तवमें जैन अहिंसाका सिद्धान्त हो तो भी मेरी बुद्धि या मेरा हृदय उसको कदापि स्वीकार नहीं कर सकता।

अब रहा प्रवृत्ति-निवृत्तिका झगड़ा। मैं निवृत्ति-धर्मको मानता हूँ। परन्तु यह निवृत्ति प्रवृत्तिमें छिपी हुई होनी चाहिए। देह-मात्र प्रवृत्तिके बिना पल-भर भी टिक नहीं सकती, यह स्वयंसिद्ध वस्तु है। प्रत्येक साँस जो हम लेते हैं प्रवृत्ति-सूचक है, वहाँ निवृत्तिका अर्थ यही हो सकता है कि शरीर निरन्तर प्रवृत्त रहनेपर भी आत्मा निवृत्त रहे, अर्थात् उसके विषयमें अनासक्त रहे। इसलिए निवृत्ति-परायण मनुष्य सिर्फ परमार्थके लिए ही अपनी प्रवृत्ति जारी रखे। अर्थात् मुझे तो यह प्रतीत होता है कि अनासक्त रहकर परमार्थके लिए की गई प्रवृत्ति ही निवृत्ति है; फिर चाहे वह खेती हो या सूत कातना हो या अन्य कोई ऐसी प्रवृत्ति हो जो परमार्थ कही जा सकती हो। इसलिए इस प्रकारके निवृत्ति-धर्मको माननेवाले मुझ-जैसे व्यक्तिके लिए यह जानना और खोजना आवश्यक है कि देहवारी अहिंसाका पालन किस तरह और किस अंश तक कर सकता है। इस विचारको सादी भाषामें ही रख दूँ। मनुष्य-जीवनके लिए खेती वगैरह अनिवार्य उद्योगों जैसे काम करनेवाला अहिंसा-धर्मको कैसे जाने, उसका पालन किस भाँति करे, मुझे तो यही मालूम करना है। धर्ममें सर्वव्यापक होने की शक्ति होनी चाहिए। धर्म जगत्के शतांशका इजारा नहीं हो सकता, होना भी नहीं चाहिए। मेरा दृढ़ विश्वास है कि सत्य और अहिंसा, ये जगद्व्यापी धर्म हैं। इसीसे तो उसके अर्थकी खोजमें जीवन खपाते हुए भी मैं रस लूट रहा हूँ और दूसरोंको भी उस रसको लूटनेका आमन्त्रण दे रहा हूँ।

[गुजराती से]
नवजीवन, २१-१०-१९२८