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४४२. पत्र: सतीशचन्द्र दासगुप्तको

सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
२४ अक्टूबर, १९२८

प्रिय सतीश बाबू,

आपके दो पत्रोंका उत्तर मुझे देना है। यह बात तो ठीक ही है कि अगर सिर्फ अनाजके ही खेत होते तो बन्दरोंसे हमें इतनी परेशानी नहीं होती जितनी आजकल है। परन्तु मुझे तो इस समस्याको ऐसे ढंगसे हल करना है जिसका इस्तेमाल दूसरे लोग भी कर सकें। अनाज-ही-अनाजके खेत रखनेके लिए लोगोंसे कहना तो कोई हल नहीं होगा। वृक्षोंको न रहने देनेके अभियानका अनिवार्य परिणाम वर्षा और फलोंका अभाव ही होगा, जबकि कृषिके क्षेत्रमें भारतकी सबसे बड़ी आवश्यकता हैं―और अधिक वृक्ष, और ज्यादा फलदार वृक्ष लगाना।

ढोरोंके सम्बन्धमें आपकी इस बातसे मैं बिलकुल सहमत हूँ कि आदर्श बात तो यही होगी कि ढोरोंके बिना ही काम चलाया जाये। परन्तु इसका अर्थ भी यही होगा कि हम कृषि न करें और जहाँतक कृषिकी बात है, सवाल सिर्फ ढोरोंका ही नहीं, बल्कि हमें खेतीका काम करनेमें भी और अनेक प्राणियोंको नष्ट करना पड़ता है। इसमें यदि हमारा कोई लक्ष्य हो सकता है तो यही कि कमसे-कम प्राणियोंको नष्ट होने दिया जाये और ढोरोंके साथ दयाका बरताव किया जाये। मैं चाहता हूँ कि आप इस समस्याको लेकर अपना सिर न खपायें। और अब आपके पहले पत्रके बारेमें।

आपकी अहिंसाकी पूर्ण अभिव्यक्ति खादीके क्षेत्रमें ही होगी और आपको उसी क्षेत्रकी समस्याको हल करनेमें अपना दिमाग खपाना है। मैं जानता हूँ कि आप जल्दबाजी में यन्त्रवत् कोई कदम नहीं उठायेंगे और सभी चीजें अपने सहज क्रममें उपयुक्त अवसरपर होती चलेंगी।

मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी, यदि हेमप्रभादेवी आश्रम आकर सामूहिक भोजनालय और अन्य कार्योंमें यथाशक्ति हाथ बँटायें। जब भी उनको ठीक लगे, वे यहाँ आ सकती हैं।

प्रदर्शनी से सम्बन्धित हमारा परिपत्र सभी सम्बद्ध और सहायता-प्राप्त संगठनोंको भेजा जा चुका है।

कराची नगरपालिकाको खादीके नमूने भेजनेका जो भी फल निकले, मुझे अवश्य लिखियेगा।

हृदयसे आपका,
बापू

श्रीयत सतीशचन्द्र दासगुप्त
खादी-प्रतिष्ठान, सोदपुर

अंग्रेजी (जी॰ एन॰ १५९७) की फोटो-नकलसे।