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४४३. ‘मृत्यु विश्राम है’[१]

मेरे पास तो ऐसे पत्रोंकी भरमार रहती है जिनकी प्रत्येक पंक्तिमें मृत्युका भय और उसके परिणामस्वरूप अहिंसाका विकृत रूप देखनेको मिलता है। इसलिए मगनलाल गांधी की मृत्युके सिलसिलेमें एक मित्रद्वारा भेजा यह अत्यन्त सुन्दर संवाद पढ़कर मन ताजगीसे भर गया:

जू कुंगने कन्फ्यूशियससे कहा: “प्रभु मैं थक गया हूँ और मुझे विश्राम चाहिए।
मनीषीने उत्तर दिया: “जीवनमें कहीं भी विश्राम नहीं है।”
शिष्यने पूछा: “तो क्या मुझे कभी विश्राम नहीं मिलेगा?
कन्फ्यूशियस बोले: “मिलेगा। देखो, चारों ओर बिखरी हुई इन कब्रोंको देखो। कुछ सुन्दर हैं और कुछ बड़ी मामूली। ऐसी ही किसी कब्र में तुमको विश्राम मिलेगा।”
जू कुंगके मुँहसे सहसा यह हर्षोद्गार निकल पड़ा: “मृत्यु कितनी अद्भुत चीज है। ज्ञानी लोग उसमें विश्राम पाते हैं और सांसारिक लोग उसमें गर्क होकर रह जाते हैं।”
कन्फ्यूशियस बोले: “वत्स, मैं देख रहा हूँ, तुमको ज्ञान हो गया है। अज्ञानी व्यक्ति जीवनको मात्र एक वरदान समझते हैं; वे नहीं जानते कि वह एक महाबन्धन है। वे वृद्धावस्थाको दौर्बल्यको अवस्था मानते हैं; वे नहीं समझते कि वह शान्तिकी अवस्था है। वे मृत्युको बस घृणास्पद ही समझते हैं, वे नहीं समझते कि वह विश्रामकी एक अवस्था है।”
येन जू बोल पड़ा: “मृत्युके सम्बन्धमें प्राचीन कालका विचार कितना सुन्दर है। पुण्यात्माएँ उसमें विश्राम पाती हैं; दुष्टात्माएँ उसमें गर्क हो रहती हैं। मृत्युके द्वारा प्रत्येक प्राणी उसीमें लीन हो जाता है जहाँसे वह आया था। प्राचीन कालके लोग मृत्युको अपने घर लौटना और जीवनको घरसे बाहर रहना मानते थे। और जो प्राणी अपना घर भूल जाता है, वह अपनी पीढ़ीमें बहिष्कृत हो जाता है तथा हेय दृष्टिसे देखा जाता है।”

यह उद्धरण देनेका मंशा किसी जीवित प्राणी या वस्तुको प्राणदण्ड देनेका औचित्य सिद्ध करना नहीं है। उद्धरण देनेका मंशा यह सिद्ध करना है कि मृत्यु सभी परिस्थितियों में भयास्पद नहीं होती, जैसा कि अनेक पत्र-लेखक कहते हैं। कुछ

 
  1. इसी विषयपर गांधीजी का एक लेख अन्त में एक अतिरिक्त पैरेके साथ गुजराती नवजीवनके ४-११-१९२८ के अंक प्रकाशित हुआ था।