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४४६. हमने हिन्दुस्तान कैसे गँवाया[१]

देशबन्धुकी मृत्युसे ठीक पहलेकी बात है। जलपाईगुड़ीके व्यापारियों द्वारा दिये गये एक मानपत्रके उत्तरमें मैंने उनसे कहा था कि हिन्दुस्तान व्यापारियोंके द्वारा पराधीन हुआ और अब उन्हींके द्वारा हमें उसे स्वाधीन भी कराना चाहिए।[२] अगर इस कथनकी पुष्टिकी जरूरत हो तो नीचे उद्धृत की गई इस ध्यान देने योग्य गश्ती-चिट्ठीसे, जो एक व्यापारिक संस्था द्वारा अन्य व्यापारिक संस्थाओंको भेजी गई थी, उसकी यथेष्ट पुष्टि होती है:

जैसा कि आप जानते हैं, मैंचेस्टरके कपड़े और सूतका व्यापार इन दिनों बहुत गिर गया है, और दिन-ब-दिन उसके गिरते जानेके ही लक्षण प्रकट दिखाई देते हैं। देखने में यह आया है कि व्यापारी लोग इस व्यापारमें अब पहलेकी भाँति दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। इस उदासीनता के कारण हमारे देश-भाई अपनी आदमनी और फायदेके एक ऐसे भारी जरियेको धीरे-धीरे खो रहे हैं, जो उन्हें अब भी बहुत लाभ दे सकता है। अन्य व्यापारी-समाजोंकी भाँति मारवाड़ी-समाजकी भी कपड़े और सूतके व्यापारमें काफी दिलचस्पी है। इसलिए मेरी समितिने इसी महीनेकी ७ तारीखको बैठकमें इस महत्त्वपूर्ण व्यापारको पुनः उन्नत करनेकी गरजसे एक प्रस्ताव द्वारा उसकी मौजूदा मन्दीके कारणोंको पूरी छान-बीन करनेका निश्चय किया है।
यह बात सबके हानि-लाभकी है। इसलिए समितिने यह उचित समझा है कि इससे सम्बन्ध रखनेवाली भिन्न-भिन्न संस्थाओंके प्रतिनिधि किसी जगह सम्मिलित होकर विचार करें, जिससे यदि हो सके तो सब मिल-जुलकर कोई उपाय करें।...

चिट्ठी १९ जुलाई, १९२८ की है।[३] मुझे पता नहीं कि इस प्रयत्नका क्या नतीजा निकला। पर इस समय हमें उसके नतीजेसे कोई सरोकार भी नहीं है। एक तरफ जहाँ देश हर तरह के विदेशी कपड़ेका बहिष्कार करनेकी तैयारी कर रहा है, वहाँ दूसरी तरफ हमारे यहाँकी प्रतिष्ठित व्यापारिक संस्थाएँ मैंचेस्टरके कपड़े और सूतके व्यापारको बनाये रखने के लिए उपायोंकी आयोजना करनेमें व्यस्त हैं। यह एक ऐसा दुश्चिह्न है, जिसकी ओर प्रत्येक राष्ट्रीय कार्यकर्ताको ध्यान देना जरूरी है।

 
  1. इस विषयपर एक और लेख गांधीजी ने ४-११-१९२८ के गुजराती नवजीवनमें भी लिखा था।
  2. देखिए खण्ड २७, पृष्ठ २२१।
  3. नवजीवनवाले लेखमें तारीख ७ जुलाई, १९२८ बताई गई है।