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हमने हिन्दुस्तान कैसे गँवाया

 

इन पृष्ठोंमें यह बतानेके लिए समय-समयपर काफी सबूत पेश किया जा चुका है कि अंग्रेज भारतको व्यापारके लिए ही अपने अधीन रखे हुए हैं, और यह तो जानी-मानी बात है कि ब्रिटेनसे हमारे यहाँ सबसे ज्यादा कपड़े ही आते हैं। सचमुच यह सिद्ध करनेके लिए तो किसी भी कमेटी या कमीशनकी जरूरत नहीं है कि जबतक हम अपने देशकी इस लूटको नहीं रोकेंगे, अंग्रेज हर सम्भव तरीके से हिन्दुस्तान पर अपना कब्जा बनाये रखेंगे। इसलिए भारत में रहनेवाले अंग्रेजों या अंग्रेज शासकोंको यहाँसे निकालने या उनके हृदय-परिवर्तनका सवाल हमारे सामने अभी उतना प्रधान नहीं है। इस समय सबसे भारी जरूरत तो हमारे अपने उन करोड़पति व्यापारियों तथा उनके सहायक जनोंके हृदयको बदल देनेकी है, जो अपने लाभके लिए देशको बेच रहे हैं।

पर उन करोड़पति व्यापारियोंको देशके लिए अपने-आपको बरबाद भी नहीं करना होगा। वे जितना कपड़ा और सूत विदेशोंसे मँगा रहे हैं, उतने कपड़े और सूतकी जरूरत तो देशको रहेगी ही। बस, उन्हें तो सिर्फ अपनी असन्दिग्ध व्यापारिक शक्ति और कौशल देशके सात लाख गाँवोंमें उतना सुत और कपड़ा तैयार करानेमें लगा देने की जरूरत है। यदि वे ऐसा करेंगे तो स्वभावतः उन्हींका फायदा होगा। हाँ, यह जरूर है कि उन्हें जुआ, सट्टा, तथा उन ऊँचे महलोंको भी छोड़ देना पड़ेगा जो उनके आसपासके परिवेशके मुकाबले में जरा भी नहीं फबते। उन्हें उतनी ही आमदनीपर सन्तुष्ट रहना पड़ेगा जो उनसे व्यापार करनेवाले लोगोंकी तथा जिनके लिए वे व्यापार करेंगे, उनकी स्थितिसे कुछ सम्बन्ध रखती होगी। दूसरे शब्दोंमें, आज जो वे गाँवोंका खून चूसनेमें भाग ले रहे हैं, उसके बजाय वे उन गाँवोंको कुछ थोड़ा-सा प्रतिदान दे सकेंगे जिनपर व्यापारियोंकी समृद्धिका सारा दारोमदार रहा है। पेट और अन्य अंगोंकी वह कहानी सनातन सत्य है। करोड़ों श्रमजीवी देशका पेट हैं। व्यापारी तथा दूसरे वर्गके लोग उसके अन्य अंग हैं। अगर पेटमें कुछ नहीं है, तो हाथ-पाँव अवश्य ही रक्तहीन हो जायेंगे। जिनके आँखें है, वे देख सकते हैं कि पेटको हम निर्लज्जता-पूर्वक मुद्दतसे भूखों मारते आ रहे हैं। इसलिए अब हाथ-पैरोंका गलना अवश्यम्भावी है, जैसे कि दिनके बाद रातका आना। इसलिए अभीसे सावधान हो जानेमें बुद्धिमानी है। ‘समय चूकि पुनि का पछिताने।’

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २५-१०-१९२८