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४६४. दक्षिणमें अकाल

दक्षिणके दुःखका पार नहीं है। एक ओर सेलमके आसपास भयंकर अकाल पड़ा हुआ है, जबकि दूसरी ओर काकीनाडाके आसपास बाढ़ आनेकी खबर है। बाढ़से कितना नुकसान हुआ है, यह तो अभी मालूम नहीं हुआ। इस बीच अकालके सम्बन्ध में श्री राजगोपालाचारीने जो अपील की है वह ‘यंग इंडिया’ में प्रकाशित[१] कर दी गई है। उससे मालूम होता है कि पानीकी कमीसे फसल न होने के कारण किसान चिन्तामें पड़ गये हैं। कातनेवाली बहनोंका ताँता लगा हुआ है। पिछले वर्ष सितम्बरमें जो बहनें आश्रम में रुई लेने आई थीं, उनकी संख्या २४७३ थी और इस वर्ष सितम्बर ६४२३ बहने आई। इसी महीने में पिछले वर्ष ४७८५ रतल सुत प्राप्त हुआ था और इस वर्ष १२८०२ रतल प्राप्त हुआ है।

यह काम अकाल-पीड़ितोंकी शुद्धतम मदद है। और यदि यह अच्छी तरह जम जाये तो अकालके बाबजूद लोगोंको उसका दुःख नहीं व्यापेगा। इस समय अकालसे कष्ट होता है, क्योंकि किसानोंके पास काम नहीं रहता, अर्थात् कोई आय नहीं होती। यदि उन्हें निश्चित रूप से किसी सहायक धन्धेका सहारा मिलता रहे तो वे चिन्तामुक्त हो सकते हैं। इस समय उन्हें दो प्रकारसे सहायता दी जा सकती है: एक तो अकाल के दौरान बनाई गई खादी खरीदकर और, दूसरी, बिना किसी शर्तके दान देकर। मुझे आशा है कि मैं अकाल-सम्बन्धी आँकड़े बादमें प्रकाशित कर सकूँगा। फिलहाल जो इस दुःखमें हिस्सा बटाना चाहते हैं वे यथाशक्ति दान दें या खादी खरीदें।

[गुजराती से]
नवजीवन, २८-१०-१९२८

४६५. गुजरात विद्यापीठ

महाविद्यालय और विनयमन्दिर में दिवालीकी छुट्टियाँ शुरू होनेके दिन आचार्यने जो निवेदन तैयार किया था और सत्रावसानके उत्सव में पढ़कर सुनाया था वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। उसे लम्बा होने पर भी संक्षिप्त ही कहा जा सकता है; क्योंकि उसमें अलंकृत भाषा या पुनरुक्ति नहीं थी। शुद्ध सत्य उसकी विशेषता थी। उसमें दोषको छिपाने या सामान्य बतानेका प्रयत्न भी नहीं किया गया था, फिर भी ११२ दिनके इस सत्रका वृत्तान्त बहुत ही आशाजनक है। इस निवेदनमें अनेक प्रवृत्तियोंका संक्षेपमें विवरण है। उसे पढ़नेसे मालूम हो सकता है कि इसमें छोटी-छोटी बातोंपर भी ध्यान दिया गया है। इसमें खेती-विभाग और उद्योग ध्यान खींचे बिना नहीं रहते। खेती में फलोंके पेड़ लगाना और कपास बोना नये ही प्रयोग है। उद्योगों में कपास लोढ़ना, रुई पोंजना, सूत कातना, कपड़ा बुनना और बढ़ईगिरीका

  1. देखिए “दक्षिण में अकाल“, २५-१०-१९२८।