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गुजरात विद्यापीठ

काम खास तौरसे ध्यान खींचते हैं। उद्योग सीखनेमें हर रोज कमसे-कम दो घंटेका समय दिया जाता है। किसी उद्योगको ठीक-ठीक सीखनेके लिए उसमें अधिक समय लगानेकी जरूरत तो पड़ती ही है; क्योंकि पूरा अभ्यास किये बिना कोई भी उद्योग पूरी तरह नहीं सीखा जा सकता, भरपूर काम किये बिना कारीगरके हाथ में सफाई नहीं आ सकती। मानसिक क्रियाकी तरह उद्योगका विकास नहीं किया जा सकता। थोड़ा-सा पढ़ना सीख लेने के बाद मनुष्य अपना मानसिक विकास बिना अधिक पुस्तकें पढ़े कर सकता है, क्योंकि मनुष्य कोई भी काम करते हुए अपने मनसे विचार करता रह सकता है। इसके विपरीत उद्योग विशुद्ध शारीरिक कार्य है, इसलिए वह जितने अधिक समय तक किया जाता है उसमें उतनी ही अधिक परिपक्वता आती है। इसीलिए उसके लिए अभ्यासकी बहुत आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त मध्यम वर्गके लोगोंको उद्योग करनेकी आदत नहीं होती, इसलिए उन्हें उसकी आदत डालनेके लिए अभ्यासकी और भी अधिक जरूरत होती है।

इस निवेदनमें जिस दूसरी बातकी ओर ध्यान खींचा गया है, वह है गुजराती शब्द-कोषकी रचना। इस समय शब्दोंकी वर्तनीमें अराजकताके कारण गुजराती भाषाका विकास रुक रहा है। काकासाहबने यह आशा व्यक्त की है कि यह कोष मार्च महीने तक तैयार हो जायेगा। इस कामके पूरा हो जानेसे एक महत्त्वका काम, जो अबतक अधूरा पड़ा था, समाप्त हो जायेगा। भारतकी सभी भाषाओंमें एक गुजराती ही ऐसी भाषा दिखाई देती है जिसमें लोग शब्द-रूपोंके बारेमें निरंकुशता बरत पाते हैं।

इस निवेदनमें नौकरोंके साथ मित्र-भाव साधनेके एक नये प्रयोगका उल्लेख है। कहा गया था कि यदि नौकर रखने ही पड़े तो उनसे एकता साधनेका उपाय यह है कि उनके प्रति साथियों-जैसा बरताव किया जाये। काकासाहबको यह आशा है कि यदि नौकरोंके लिए एक वर्ग चलाया जाये तो उनके साथ यह एकता प्राप्त की जा सकती है। यदि विद्यार्थी इस कामको ईमानदारीसे करेंगे तो काकासाहबका यह शुभ उद्देश्य पूरा हो जायेगा।

इस प्रकार नई-नई प्रवृत्तियाँ चलाते रहकर भी विद्याभ्यासकी उपेक्षा नहीं की गई है। पाठकोंको इस निवेदनसे यह अवश्य ही ज्ञात हो जायेगा कि इस विभाग पर भी पूरा ध्यान दिया जाता है। अर्थात् विद्यापीठके विद्यार्थियोंको ग्राम-सेवक बनानेके लिए जिस सामग्रीकी आवश्यकता है उसे उनके सम्मुख सचाईसे रखनेका प्रयत्न जारी है। विद्यार्थी इस सामग्रीको पचा सकेंगे या नहीं यह उनके उत्साह पर निर्भर है। और विद्यार्थियोंका उत्साह शिक्षण-कला पर निर्भर है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २८-१०-१९२८