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४६७. अहिंसा-प्रकरण

(१)

एक पत्र-लेखक लिखते हैं:
आपका ‘पावकको ज्वाला’[१] नामक लेख मैंने पढ़ा। बार-बार पढ़ा। खूब संतोष हुआ। परन्तु बन्दरोंके विषयमें पढ़कर मैं आश्चर्यचकित रह गया। मेरे दिलमें तो यह था कि शायद सूर्य-चन्द्रकी गति भले रुक जाये परन्तु आप-जैसे पुरुष, जिसकी रग-रगमें अहिंसा भरी हुई है, यह कभी न कहेंगे कि ‘मैं हिंसा करके आश्रमकी रक्षा करूँगा।’ यही मेरी मान्यता थी; किन्तु जान पड़ता है, मैंने ऐसा सोचकर भूल की थी। बन्दरोंसे सम्बन्धित लेख पढ़कर मुझे गहरा आघात पहुँचा। मनमें कुढ़न भी अवश्य हुई। क्या आप मेरी परेशानी दूर करेंगे?

ऐसे ही दूसरे पत्र भी आये हैं। मैं देखता हूँ कि मेरे विषयमें बहुत-से सज्जनोनें बहुत बड़ी आशाएँ बाँध रखी हैं। लगता है कि अहिंसादि सिद्धान्तोंकी जो व्याख्याएँ मैंने की हैं उनके अनुसार ही मैं इन सिद्धान्तोंपर पूरी तरह अमल कर सकता हूँ ऐसा ये सज्जनगण मानते हैं। बछड़े और बन्दरोंके विषय में मेरे द्वारा अपनी मनोवृत्ति प्रकट करनेपर उपयुक्त भ्रम दूर हो रहा है, यह मेरे लिए बड़े ही सन्तोषकी बात है। महात्माके पदकी अपेक्षा सत्य मुझे अनन्त गुना प्रिय है। मैं जानता हूँ कि मैं महात्मा नहीं हूँ, अल्पात्मा हूँ और इसका मुझे बराबर खयाल है और इसीसे महात्मा-पदसे मुझे कभी धोखा नहीं हुआ। मुझे कबूल कर लेना चाहिए कि मैं प्रतिक्षण हिंसा करके अपना शरीर निभाता हूँ और इसीसे शरीरके प्रति मेरा मोह क्षीण होता जा रहा है। आश्रमकी रक्षा करने में भी हिंसा कर रहा हूँ। प्रत्येक साँस लेनेमें सूक्ष्म कीटाणुओंकी हिंसा करता हूँ और यह जानते हुए भी साँसको मैं रोक नहीं सकता। वनस्पतिका आहार करने में हिंसा करता हूँ, फिर भी आहारका त्याग नहीं करता। मच्छरों आदिके कष्टसे बचनेके लिए मिट्टीका तेल-जैसी चीजोंको काममें लाने से उनका नाश होता है, यह जाननेपर भी इन नाशक द्रव्योंका उपयोग करना नहीं छोड़ता। साँप के उपद्रवसे आश्रमवासियोंको बचाने के लिए जब उन्हें बिना मारे दूर नहीं कर सकते तब मारने भी देता हूँ। बैलोंको हाँकनेमें आश्रमके मनुष्य उन्हें पैनी आर चुभोते हैं, मैं वह भी सहन कर लेता हूँ। यों मेरी हिंसाका अन्त ही नहीं है। अब मुझे बन्दरोंका उपद्रव परेशान कर रहा है। बन्दरोंको मार ही डालनेका निश्चय मैं कभी कर सकूंगा या नहीं, उसकी मुझे कुछ खबर नहीं है। ऐसे निश्चयसे मैं दूर भागता हूँ। अभी तो कई-एक उपयोगी सुझावों द्वारा मित्र लोग मदद कर

  1. तारीख ३०-९-१९२८ का।