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अहिंसा-प्रकरण

 

इन चार प्रकारकी स्थितियोंमें से किसी एकके भी अभावमें प्राणहरण नहीं किया जा सकता।

(३)

तीसरे पत्र-लेखक कहते हैं:

बछड़ेका तो ठीक, परन्तु आपके इस उदाहरणसे देवी-देवताओंको चढ़ानेको खातिर बकरों वगैरहका जो वध करनेमें आता है, उस प्रथाको प्रोत्साहन मिलेगा, क्या इसपर आपने विचार किया है? क्या आप यह नहीं जानते कि बकरोंको बलि चढ़ानेवाले यह दावा करते हैं कि वे बकरोंका कल्याण चाहते हैं?

मेरे कार्यका ऐसा दुरुपयोग होनेकी पूरी गुंजाइश है। मैं जानता था कि लोग भी ऐसा करेंगे भी। परन्तु जबतक पाखण्ड और मूर्खता इस जगत में हैं तबतक ऐसे दुरुपयोग होते ही रहेंगे। किस धर्मके नामपर आजतक पाखण्ड और अधर्म नहीं फैला? इसलिए दुरुपयोगके डरसे जो वाजिब हो उसे करनेमें मनुष्यको डरना न चाहिए, ऐसा सामान्य नियम है। बलिदानके रूप में बकरोंका वध करनेवालोंके लिए मेरे दृष्टान्तकी कोई जरूरत नहीं है। वे अपना कार्य शास्त्र के नामपर करते हैं। सच्चा डर तो यह है: मेरे कार्यका दृष्टान्त देकर अपने माने हुए दुश्मनोंका वध करनेको भी कुछ-एक लोग तैयार होंगे। वे कहेंगे: “दुश्मनको मारकर हम जनताका और उसका दोनोंका कल्याण करते हैं।” ऐसी दलीलें मैंने कईबार सुनी हैं। मेरे लिए तो इतना ही काफी है कि मेरे दृष्टान्त और उल्लिखित कामोंमें कोई साम्य नहीं है। बकरे या दुश्मनके वधमें दोनों में से एककी भी सम्मतिकी तो बात ही नहीं है और यदि वध न करनेसे बकरे तथा दुश्मनका कल्याण माना जाये तो उसमें वध करनेवालों का स्वार्थ भी कम नहीं है। परन्तु जिनको आँख खोलकर देखना ही नहीं है, वे तो ऐसा स्पष्ट भेद भी नहीं देख सकेंगे। तुलना करनेवाले यदि तुलनाके नियमोंका ही लोप कर दें तो उसका क्या उपाय किया जा सकता है?

[गुजराती से]
नवजीवन, २८-१०-१९२८