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परिशिष्ट

 

(घ) मन्त्री वचन देता है कि यह दस्तावेज रद नहीं किया जायेगा बशर्ते कि इसको धारण करनेवाला व्यक्ति ५ जुलाई, १९२४ के पश्चात् ऐसे अपराधके लिए दण्डित न हुआ हो जिसका स्पष्ट निर्देश १९२७ के अधिनियम ३७ द्वारा संशोधित १९१३के अधिनियम २२ के खण्ड २२ में किया गया है। उस स्थितिमें धारणकर्ताके मामलेमें १९२७ के अधिनियम ३७ के खण्ड ५ द्वारा संशोधित १९१३के अधिनियम २२ के खण्ड १०की शर्तोंके अनुसार आगे कार्रवाई की जायेगी।

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प्रवास तथा एशियाई कार्य आयुक्त

(तिथिकी मुहर)

मैं, ――――――――――――――――――――उपर्युक्त शर्तोंसे सहमत हूँ। धारणकर्ताके हस्ताक्षर ―――――――――――――――――――――――――― गवाह ―――――――――― स्थान ――――――――――― तिथि ――――――――――――――――

इस अनुमति-पत्रकी शर्तें मैंने धारणकर्त्ताको ――――――――――――――― में समझा दी हैं/पढ़कर सुना दी हैं।

समझानेवालेके हस्ताक्षर ――――――――――――――――――― बायें अँगूठेकी निशानी ――――――――――――――――――――――― दायें अँगूठेकी निशानी ――――――――――――

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ९-८-१९२८ और १६-८-१९२८
 

परिशिष्ट ४

सच्ची गोरक्षा[१]

गोरक्षाका सवाल बड़ा ही पेचीदा है। स्वाभाविक ही है कि अन्ध श्रद्धालु, जीवदयावाले और अर्थशास्त्री अपनी-अपनी दृष्टिके मुताबिक उसका अलग-अलग ढंगसे विचार करते हैं। परन्तु गोरक्षाके जिस आदर्शकी हिन्दू धर्मने कल्पना की है, वह अन्ध श्रद्धालुकी कल्पनासे बिलकुल भिन्न है, और जीवदया तथा अर्थशास्त्रके दृष्टिकोणसे कहीं आगे है। .... हमारे आर्थिक जीवनमें जो स्थान गायका है, वही अरब लोगोंके जीवनमें ऊँट और घोड़ेका है। ... फिर भी अरबस्तानमें ऊँट-संरक्षण या अश्व-संरक्षणका आदर्श कभी नहीं रखा गया। .... पश्चिममें भी गाय ‘ऋद्धि-सिद्धिकी जननी’ का पद उत्तरोत्तर प्राप्त करती जा रही है और दुग्धालयोंका एक बड़ा विशद शास्त्र बनता जा रहा है। फिर भी हमारे सामने गोरक्षाका जो आदर्श है, पश्चिमके लोगोंने उसे उस अर्थमें ग्रहण नहीं किया। हिन्दू धर्ममें कल्पित गोरक्षाका आदर्श पश्चिमके दुग्धालयके आदर्शसे सर्वथा भिन्न ही नहीं, बल्कि उससे कहीं ऊँचे स्तरका

  1. यहाँ सम्बन्धित अंश ही दिये जा रहे हैं।