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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है। पश्चिमका आदर्श सिर्फ आर्थिक सिद्धान्तों–लाभालाभके विचार―पर रचा गया है; जब कि हिन्दू धर्मका आदर्श गोरक्षाके आर्थिक पहलूको पूरी तरह स्वीकार तो करता है, मगर जोर देता हैं गोरक्षाके आध्यात्मिक पहलू पर। हिन्दू धर्मकी गोरक्षाकी जड़में यह विचार है कि अपने तप और आत्मत्यागके द्वारा निर्दोष गायको बलिसे बचाया जाये। ...

[कालिदासके ‘रघुवंशमें’ ‘नंदिनी-वरप्रदान’ की] कथा है कि सुविख्यात रघुवंशके राजा दिलीप वृद्धावस्था आ जाने पर भी कोई संतान न होनेके कारण अपने वशिष्ठ गुरुकी सलाह पूछने उनके आश्रम में जाते हैं। ऋषि राजाको याद दिलाते हैं कि एक बार तुझसे अनजानमें सुरभि कामधेनुका अपमान हुआ था, उसके कारण मिले हुए शापका तू फल भोग रहा है। यह शाप सुरभिकी पुत्री नन्दिनीकी सेवा करने और वनमें सब प्रकारके अनिष्टसे उसकी रक्षा करने से घुल सकता है। राजा उसके प्रायश्चित्तस्वरूप सेवा-परायण रहनेकी प्रतिज्ञा करते हैं और नौकरोंको छुट्टी दे देते हैं। उस सेवाका वर्णन कवि इस तरह करते हैं:

आस्वादवद्भिः कवलैस्तृणानां कण्ड्य नैर्देशनिवारणैश्च।
अव्याहतैः स्वैरगतैः सतस्या: सम्राट् समाराधनतत्परोऽभूत्॥

 
(राजा उसे मीठी घासके कौर खिलाते, उसका शरीर सहलाते, मच्छर वगैरा उड़ाते, वह जहाँ जाती, वहीं जाने देते। उसीकी गतिके अनुकूल बनकर, छायाकी तरह उसके साथ-साथ रहकर) राजा उसकी सेवा करने लगे। .... राजाकी तपश्चर्यामें इतनी शक्ति थी और उनका प्रेम इतना सर्वजयी था कि वन्य सृष्टि तक उससे प्रभावित हो गई और (अनेन सत्वेष्वधिको बबाधे तस्मिन् वनं गोप्तरि गाहमाने) इन रक्षा करनेवाले राजाने वनमें पैर रखा कि बलवान प्राणियोंने दुर्बल प्राणियोंको सताना तुरन्त छोड़ दिया। ... इस प्रकार इक्कीस दिन बीत गये। फिर राजाके भक्ति-भावकी परीक्षा करनेके लिए मुनिकी होमधेनु हिमालयकी एक गुफामें चली गई। ... राजा पर्वतकी शोभा देखनेमें डूबे हुए थे कि इतने में एक सिंहने आकर गाय पर हमला कर दिया। राजाको इसका पता नहीं चला। जब गायका आर्तनाद सुना, तब राजाकी नजर पीछेकी तरफ पड़ी। क्या देखते हैं कि लाल गाय पर पंजा रखकर केसरी खड़ा है। राजा लज्जित हुए। एक बाण निकालकर सिंह पर छोड़ने जा रहे थे कि उनका दाहिना हाथ वहींका-वहीं रह गया और उन्हें ऐसा लगा मानो किसीने मन्त्रसे उनका सारा बाहुबल हर लिया हो। ... सिंह बोला: “महीपाल, यह वृथा श्रम क्यों करते हो? मैं साधारण सिंह नहीं, बल्कि महादेवका किंकर कुम्भोदर हूँ। शिवजी के पादस्पर्शसे पवित्र हुए मेरे शरीर पर अस्त्र नहीं चल सकते।” .... राजा दीन होकर जवाब देते हैं― “हे मृगेन्द्र, मैं चल-फिर भी नहीं सकता ... किन्तु अग्निहोत्री गुरुकी होमधेनु―उनके धन ―का अपनी आँखोंके सामने नाश होते हुए मुझसे देखा नहीं जाता, इसलिए तू मुझ पर कृपा करके मेरी देह ले, इससे अपनी मूख मिटा और महर्षिकी गायको छोड़ दे। ...”