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१७. पत्र: घनश्यामदास बिड़लाको

२ जुलाई, १९२८

 
भाई घनश्यामदासजी,

आपका पत्र और रु० २७०० की हुंडी मीले हैं। मैं चीनके साथ संबंध तो रखता ही हुं परंतु उन लोगोंको तार भेजनेको दिल नहीं चाहता। उसमें कुछ अभिमानका अंश आता है। यदि आयु है तो चीन जानेका इरादा अवश्य है। कुछ शांति होनेके बाद वह लोग मुझको बुलाना चाहते हैं।

आप सब भाईयोंके पाससे आर्थिक मदद मांगने में मुझको हमेशा संकोच रहता है। क्योंकि जो कुछ मांगता हुं आप मुझे दे देते हैं। दक्षिणामूर्तिके बारेमें मैं समजा हुं। बात यह है कि मुलकमें अच्छे काम तो बहोत हैं परंतु दान देनेवाले कुछ कम हैं। अच्छा काम रुकता नहिं है परंतु नये देनेवाले उत्पन्न नहिं होते हैं। नये काम तो हमेशा बढ़ते जाते हैं।

ठीक कहते हो नियमावलीकी किम्मत केवल नियमोंके पालन करनेवालों पर निर्भर है। रुपये आस्ट्रीयाके मित्रोंको[१] भेज दीये हैं।

आपका,
मोहनदास

मूल पत्रकी नकल (सी॰ डब्ल्यू॰ ६१५८) से।
सौजन्य : घनश्यामदास बिड़ला

 

  1. फ्रेडरिक स्टैंडेनेथ और उनकी पत्नी।