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परिशिष्ट

 

सिंह राजाका संकल्प बदलनेके लिए उसे कई तरहसे समझाता है:

भूतानुकम्पा तव चेदियं गौरेका भवेत्स्वस्तिमती त्वदन्ते।
जीवन्पुनः शश्वदुपप्लवेभ्यः प्रजाः प्रजानाथ पितेव पासि॥

(तुम अगर भूतदयासे प्रेरित हुए हो, तो अपना शरीर देकर तुम एक ही गायको बचा सकोगे। परन्तु जीते रहे तो हे प्रजानाथ, तुम अपनी प्रजाको पिताकी भाँति सदा संकटोंसे बचा सकोगे।)

इस प्रकार सिंह मानता नहीं और गायकी दयार्द्र आँखें राजाका दयाभाव और सेवाभाव बढ़ाती जाती हैं। सिंहको राजा और समझाते हैं। अन्तमें वे एक सुन्दर दलील देते हैं:

किमप्यहिंस्यस्तव चेन्मतोऽहं यशःशरीरे भव मे दयालुः।
ऐकान्तविध्वंसिषु भद्विधानां पिण्डेष्वनास्था खलु भौतिकेषु॥

(तुझे ऐसा लगता हो कि मेरी हिंसा नहीं हो सकती, मुझ पर तुझे दया आती हो, तो किसलिए इस नश्वर शरीरपर दया करता है? मेरा जो यशःशरीर–अमर यशरूपी मेरा जो शरीर―है उस पर दया कर, और इस नश्वर देहको खाकर तू सन्तुष्ट हो। जो केवल नश्वर पिंड है, उसपर मुझे कोई आस्था या स्पृहा नहीं है।)

इस दलीलसे सिंह मात हो जाता है और कहता है “तथेति” (ऐसा ही हो)। इस तरह राजा सिंहकी क्षुधा-शान्तिके लिए उसके चरणों पर अपना शरीर मांसके एक लोथड़ेकी तरह अर्पित करते हैं। .... परन्तु कैसा आश्चर्य! सिंहकी भयावनी छलाँगके बदले राजा पर आकाशसे पुष्पवृष्टि होती है और एक मृदुल वाणी सुनाई देती है―‘हे वत्स उठ!’ राजा उठता है और देखता है तो सामने अपनी माता-जैसी वही गोमाता दूधको धार छोड़ती हुई खड़ी है और सिंह अदृश्य हो चुका है।

राजाकी गुरुभक्ति, सेवा और दयासे प्रसन्न हुई गाय राजाको उसका माँगा हुआ वर देती है:

मक्त्या गुरौ भव्यनुकम्पया च प्रीतास्मि ते पुत्रवरं वृणीष्व।
न केवलानां पयसां प्रसूतिमवेहि मां कामदुधां प्रसन्नाम्॥

(तेरी गुरुभक्ति और मेरे प्रति दिखाई तेरी दयासे मैं प्रसन्न हुई हूँ। हे पुत्र, तू वर माँग। ऐसा मत समझ कि मैं सिर्फ दूध ही देती हूँ, मैं कामधेनु हूँ। प्रसन्न हो जाऊँ तो जो चाहे दे सकती हूँ ।)

यहाँ दिलीपको साक्षात् प्रेममूर्ति चित्रित किया गया है। गायको बचानेके लिए प्राणार्पण किया जाये, या करोड़ों गायोंके दानका पुण्य प्राप्त किया जाये, इस धर्म-संकटमें उन्हें अपना मार्ग चुनते देर नहीं लगी। निःशंक होकर वे प्राण देना पसन्द करते हैं और ऐसा करते हुए, अकल्पित रूपसे देवी सत्त्वको प्रसन्न करते हैं। सत्यको अपनी अविरत शोधसे उन्हें गोरक्षाका सच्चा―अहिंसा और पूर्ण प्रेमका―मार्ग मिलता है; और यह मार्ग स्वीकार करने पर उन्हें सारी ऋद्धि-सिद्धि मिल जाती हैं।