पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 37.pdf/५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१९
पत्र: डॉ॰ प्र॰ च॰ घोषको


से परिचालित है। उनकी संस्था सरकारके इशारे पर ही चलती है। कमसे-कम मुझे तो ऐसा ही लगता है। मेरा ख्याल है कि जिन कारणोंसे प्रेरित होकर एन्ड्रयूजने[१] कैम्ब्रिज मिशन छोड़ा उनमें से एक उसका जरूरत से ज्यादा दुनियादारीका रवैया भी था। लेकिन, यहाँ भी मैं ऐसा मानकर ही लिख रहा हूँ कि हो सकता है, मेरा खयाल गलत हो। मेरे इस निष्कर्षसे एन्ड्रयूजके रवैयेका कोई सरोकार नहीं है। इसलिए आप अभी जिस कठिनाईमें पड़ गये हैं उसे मैं एक छिपा हुआ वरदान ही मानता हूँ। यदि आपमें दृढ़ विश्वास और शक्ति होगी तो आप उस संस्थासे सदाके लिए अपना सम्बन्ध तोड़ लेंगे। और मेरा खयाल है कि आप वैसा करके और भी अधिक अच्छे सत्यदूत बन जायेंगे।

मेरे पश्चिमी देशोंकी यात्रा करनेकी बातके बारेमें आपने जो-कुछ कहा है,[२] उसे मैं समझता हूँ। अगर बाहरी परिस्थितियाँ अनुकूल रहीं और मेरा स्वास्थ्य ठीक रहा तो अगले वर्ष मैं वहाँ जानेकी उम्मीद रखता हूँ।

हृदयसे आपका,

रेवरेंड बी॰ डब्ल्यू॰ टकर
'द मैंस', दार्जिलिंग

अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १३४५१) की फोटो-नकलसे।

 

२३. पत्र: डॉ॰ प्र॰ च॰ घोषको

सत्याग्रहाश्रस, साबरमती
४ जुलाई, १९२८

प्रिय प्रफुल्ल बाबू,

आपका भेजा प्रस्ताव पढ़ा।[३] इसमें न विनय दिखाई देती है और न खादीकी भावना। मैं तो नहीं समझ पा रहा हूँ कि आपने जमनालालजीके जिस पत्रकी नकल

 

  1. सी॰ एफ॰ एन्ड्रयूज।
  2. टकरने लिखा था: "मैं आपकी इस योजनासे सहमत हूँ कि वहाँ आप सार्वजनिक सभाओं में भाषण न देकर खास-खास लोगों और समूहोंसे ही मुलाकात और बातचीत करेंगे। इससे न केवल आप बहुत अधिक श्रमसे बच जायेंगे, बल्कि इस तरह आपके सन्देश और व्यक्तित्वका प्रभाव भी अधिक पड़ सकेगा।"
  3. "चूँकि बशीरहाटमें हुई अ॰ भा॰ च॰ सं॰ की परिषद्को बैठकमें १०,००० रुपयेके कर्जकी मंजूरीके बारेमें संघ के कार्यवाहक अध्यक्ष सेठ जमनालाल बजाजका बम्बईसे १३ जून, १९२८ को लिखा पत्र उस भावनाके विरुद्ध है जिस भावनासे उक्त बैठकमें प्रस्ताव स्वीकार किया गया था और चूँकि हमारे साथ किया गया व्यवहार अपमानजनक है और हमारे साथ पहले भी अन्याय किया गया और आज भी किया जा रहा है, इसलिए अभय आश्रम के सदस्योंकी यह बैठक निश्चय करती है कि १०,००० रुपयेका उक्त कर्ज लेनेसे खेदपूर्वक इनकार कर दिया जाये और भविष्य में अ॰ मा॰ च॰ सं॰ से और कोई कर्ज न लिया जाये।" (एस॰ एन॰ १४४४८)