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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


महत्त्व और उन पर पड़नेवाले उसके प्रभाव पर ही विचार किया गया है। न तो नवाब साहब और न किसी अन्य व्यक्तिने पाश्चात्य संस्कृतिके महत्त्व या प्रभाव पर कोई आपत्ति की। जो चीज लोगोंको बुरी लगती है वह है पाश्चात्य संस्कृतिकी वेदी पर भारतीय या प्राच्य संस्कृतिका बलिदान कर दिया जाना। यदि यह सिद्ध भी किया जा सकता हो कि पाश्चात्य संस्कृति प्राच्य संस्कृतिसे श्रेष्ठ है तो यह बात सम्पूर्ण भारतके लिए घातक सिद्ध होगी कि उसके अत्यन्त प्रतिभा सम्पन्न पुत्रों और पुत्रियोंका लालन-पालन पाश्चात्य संस्कृतिके वातावरणमें हो और इस प्रकार वे अपने राष्ट्रीय गुणोंको खोकर सामान्य जनतासे कटकर अलग हो जायें।

मेरे विचारसे, जिन लोगोंका उल्लेख किया गया है उनका सामान्य जनता पर जो भी अच्छा प्रभाव पड़ा वह उसी हदतक पड़ा जिस हदतक उन्होंने पाश्चात्य संस्कृतिके विपरीत प्रभावके बावजूद अपने व्यक्तित्व में प्राच्य संस्कृतिके गुणोंको बचा रखा था। इस सम्बन्धमें मैं पाश्चात्य संस्कृतिके प्रभावको विपरीत उस अर्थमें मानता हूँ जिस अर्थमें उसने उस पूरे प्रभावको प्रकट नहीं होने दिया जो प्राच्य संस्कृतिके सबसे अच्छे गुण प्रकट कर सकते थे। और जहाँतक खुद मेरी बात है, मैंने पाश्चात्य संस्कृतिके ऋणको बहुत साफ-साफ स्वीकार किया है। लेकिन साथ ही मैं कह सकता हूँ कि मैं राष्ट्रकी जो भी सेवा कर पाया हूँ वह 'पूर्णतः' इसी कारणसे कि जहाँ तक सम्भव हुआ हैं, मैंने अपने व्यक्तित्व में प्राच्य संस्कृतिके गुणोंको कायम रखा है। अंग्रेजियतके रंगमें रंगे, अपने राष्ट्रधर्मसे च्युत एक ऐसे व्यक्तिके रूपमें – जो जनसाधारणके विषयमें कुछ न जानता हो, जिसे उसकी चिन्ता तो और भी न हो और जो शायद उसके तौर-तरीकों, विचारों और आकांक्षाओंसे घृणा करता हो – मैं जनसाधारणके लिए बिलकुल बेकार होता। जिस राष्ट्रके बच्चों पर एक ऐसी संस्कृतिके प्रहारोंसे अपनेको बचानेका काम आ पड़े जो अपने-आपमें लाख अच्छी होती हुई भी उस अवस्थामें उनके लिए सर्वथा अनुपयुक्त है जब कि उन्होंने खुद अपनी संस्कृति को पूरी तरह ग्रहण नहीं किया हो और वे उसकी गहराइयोंमें न उतर पाये हों उस राष्ट्रकी कितनी शक्ति व्यर्थ नष्ट होगी, इसका अनुमान लगा पाना कठिन है।

अब जरा प्रश्न पर समग्र रूपसे विचार कीजिए। यदि चैतन्य, नानक, कबीर, तुलसीदास और हमारे देशमें जो अन्य बहुत-से सन्त-सुधारक हो गये हैं, वे बचपनसे ही किसी अत्यन्त सुसंचालित अंग्रेजी स्कूलसे सम्बद्ध होते तो क्या उन्होंने जितना अच्छा काम किया उससे ज्यादा अच्छा काम वे कर पाते? उक्त लेखके लेखकने जिन लोगोंके नाम लिये हैं, उन्होंने क्या इन महान् सुधारकोंसे ज्यादा अच्छा काम कर दिखाया है? यदि दयानन्दने किसी भारतीय विश्वविद्यालय से एम॰ ए॰ की उपाधि प्राप्त कर ली होती तो क्या वे और भी बड़ा काम कर दिखाते? चैन और ऐशो-इशरतकी जिन्दगी जीनेवाले उन अंग्रेजी-भाषी राजाओं-महाराजाओंके बीच, जिनका लालन-पालन शैशव कालसे ही पाश्चात्य संस्कृतिके वातावरणमें हुआ है, क्या कोई ऐसा है जिसका नाम शिवाजीके साथ लिया जा सकता हो – तमाम मुसीबतोंको बहादुरीसे झेलने और अपने दिलेर और हट्टे-कट्टे सैनिकोंकी तरह सादा जीवन