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विदेशी माध्यमका अभिशाप


जीनेवाले शिवाजीके साथ? क्या वे साहसी शूर प्रतापसे अधिक अच्छे शासक हैं? क्या यही लोग पाश्चात्य संस्कृतिके अच्छे नमूने हैं – ये नीरो लोग, जो खुद तो लन्दन और पेरिसमें बैठकर चैनकी बंसी बजा रहे हैं और उधर उनके रोममें आग लगी हुई है, उनके राज्य दुःख-दर्दमें डूबे हुए हैं? उनकी संस्कृतिमें उनके लिए गर्व करनेकी कोई बात नहीं है। उस संस्कृतिने उन्हें अपने ही देशमें अजनबी बना दिया है, उसने उन्हें यह सिखाया है कि जिन लोगों पर शासन करनेका काम उन्हें एक उच्चतर शक्ति द्वारा सौंपा गया है उन लोगोंके सुख-दुःखके सहभागी बननेके बजाय अपनी प्रजाकी गाढ़े पसीनेकी कमाई और अपनी आत्माको यूरोपमें जाकर गँवा आओ।

लेकिन यहाँ विचारणीय प्रश्न यूरोपीय संस्कृति नहीं है। प्रश्न तो शिक्षाके विदेशी माध्यमका है। यदि हम इस तथ्यको एक ओर रख दें कि एकमात्र उच्चतर शिक्षा, जिसे शिक्षा कहा जा सकता है, हमने अंग्रेजी माध्यमसे पाई है तो फिर इस स्वयंसिद्ध बातको सिद्ध करनेकी कोई जरूरत ही नहीं रह जायेगी कि यदि किसी राष्ट्रके नौजवानोंको सचमुच एक राष्ट्रके रूपमें रहना है तो उन्हें सारी शिक्षा, उच्चतम शिक्षा भी, अपनी देशी भाषाओंके माध्यमसे ही प्राप्त करनी चाहिए। निश्चय ही इस बातको समझाने और साबित करने की जरूरत नहीं है कि किसी भी राष्ट्रके नौजवान तबतक जनसाधारणसे अपना सम्पर्क बनाये नहीं रख सकते या बना नहीं सकते जबतक कि वे उसी भाषामें ज्ञान प्राप्त और ग्रहण न करें जिस भाषाको जनता समझती है। यहाँके हजारों नौजवानोंको अपनी मातृभाषा और अपने साहित्यकी उपेक्षा करके एक ऐसी भाषा और उसके मुहावरों पर अधिकार प्राप्त करनेके लिए, जिस भाषाका उनके दैनिक जीवनके लिए कोई उपयोग नहीं है, जो वर्षोंका समय बरबाद करना पड़ता है, उससे राष्ट्रकी कितनी अपार क्षति होती होगी, इसका अनुमान कौन लगा सकता है? अमुक भाषा विकासक्षम या जटिल अथवा वैज्ञानिक विचारोंको व्यक्त करने योग्य नहीं है, इससे बड़े अन्धविश्वासके बारेमें तो कभी सुना ही नहीं। कोई भी भाषा उस भाषाको बोलनेवालों के चरित्र और विकास का बिलकुल सही प्रतिबिम्ब होती है।

देशके नौजवानों पर एक विदेशी माध्यम थोप देनेसे उनकी प्रतिभा कुण्ठित हो रही है और इतिहासमें इसे विदेशी शासनकी बुराइयोंमें सबसे बड़ी बुराई माना जायेगा। इसने राष्ट्रकी शक्तिमें घुन लगा दिया है, शिक्षार्थियोंके लिए विद्योपार्जनके लिए पर्याप्त समय नहीं छोड़ा है, उन्हें सर्वसाधारणसे काटकर अलग कर दिया है, शिक्षाको अनावश्यक रूपसे व्यय-साध्य बना दिया है। यदि यह प्रक्रिया आगे भी जारी रही तो ऐसे आसार दिखाई दे रहे हैं कि यह राष्ट्रकी आत्माका हनन कर देगी। इसलिए शिक्षित भारतीय अपने-आपको विदेशी माध्यमके इस व्यामोहसे जितनी जल्दी मुक्त कर लेंगे, स्वयं उनके और देशकी जनताके लिए उतना ही अच्छा होगा ।

[अंग्रेजीसे]

यंग इंडिया, ५-७-१९२८