३७. पत्र: आनन्दस्वरूपको
सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
६ जुलाई, १९२८
प्रिय मित्र,
आपका पत्र मिला। 'माइ एक्सपेरिमेन्टस् विद ट्रूथ' के उर्दू और हिन्दी अनुवादोंके लिए तो अनुमति पहले ही दी जा चुकी है।
हृदयसे आपका
एडवोकेट, हाईकोर्ट, सहारनपुर, सं॰ प्रा॰
अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १३४६३) की माइक्रोफिल्मसे।
३८. पत्र : डॉ॰ म॰ अ॰ अन्सारीको
सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
६ जुलाई, १९२८
डॉ॰ जाकिर हुसेनसे जमकर बातचीत हुई। स्थिति सचमुच बहुत नाजुक है। देनदारियाँ बढ़ती जा रही हैं और जामिया मिलिया-कोषके लिए एकत्र की गई रकममें से तबतक कुछ निकाला नहीं जा सकता जबतक कि एक जाब्तेका न्यासपत्र तैयार नहीं हो जाता; क्योंकि मूल घोषणामें ऐसी ही शर्त रखी गई थी। जो संविधान तैयार किया गया है, वह न तो जमनालालजी को मंजूर है, न मुझे और न वह उन शर्तोंके मुताबिक ही है, जिनपर आपकी मौजूदगीमें यहाँ हमने चर्चा की थी। इस हालतमें क्या किया जाये? मेरा खयाल तो यह है कि नई समितिको तमाम अधिकार उन प्रोफेसरोंको सौंप देने चाहिए जिन्होंने जीवन-भर इस संस्थामें काम करनेका व्रत लिया है, या फिर समितिको सक्रिय कार्यकारी परिषद् बन जाना चाहिए और जहाँ तक इस संस्थाकी आर्थिक देनदारियोंका सम्बन्ध है, उसे इसको अपने हाथमें ले लेना चाहिए। लेकिन मुझे जो-कुछ डॉ॰ जाकिर हुसेनने बताया है और जितना-कुछ मैं खुद देख-समझ पा रहा हूँ, उससे तो यही लगता है कि समिति तेजी से और कारगर ढंगसे काम नहीं करेगी। और यदि यह न ठीकसे काम करती है और न काम करनेवाले प्रोफेसरोंको अपने अधिकार ही सौंपती है, तो फिर मुझे उसका एक ही परिणाम दिखाई देता है कि जामिया मिलिया धीरे-धीरे दम तोड़