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टिप्पणियाँ

नहीं है। खेतीकी रक्षा के लिए की गई जीवहत्या भी हिंसा तो है ही। हम पग-पग पर यह अनुभव करते हैं कि इस प्रकारकी हिंसा तो मानव-जीवनके साथ लगी हुई है और अनिवार्य है। बन्दरोंकी हत्या कब अनिवार्य हो सकती है, यह कहना कठिन है। किन्तु इस हत्यासे बचनेका प्रयत्न करना कठिन नहीं है। जब ऐसे प्रयत्नोंके बाद भी बन्दरोंके उपद्रव कम न हों तब सभीको यह सोचना चाहिए कि अब उनका अपना धर्म क्या है। बन्दरोंकी हत्या करना कोई अनिवार्य सार्वजनिक नियम नहीं हो सकता। हिंसा किसी भी अवस्था में स्वतन्त्र धर्म नहीं है। स्वतन्त्र धर्म तो अहिंसा ही है। हिंसा मनुष्यकी पामरताका माप है और अहिंसा उसका परम पुरुषार्थ।

[गुजराती से]

नवजीवन, ८-७-१९२८

 

४४. टिप्पणियाँ
विद्यार्थियोंका त्याग

विद्यार्थी अपने खाने-पीनेके खर्च में बचत करके और मजदूरी करके भी बारडोली सत्याग्रहके लिए पैसे भेज रहे हैं। यह एक शुभ लक्षण है। ऐसे त्यागका एक और उदाहरण माटुंगाके कच्छी वीसा ओसवाल जैन विद्यार्थियोंके छात्रालयसे प्राप्त हुआ है। उन्होंने सूचना दी है कि उनके विद्यार्थी-मण्डलने दूध पीना बन्द करके एक महीनेके दूधके २२० रुपये इस कोषमें दिये हैं। इस त्यागके लिए विद्यार्थियोंको धन्यवाद देना उचित है। बारडोलीके सत्याग्रहियोंको इस बातको ध्यानमें रखना चाहिए। इस प्रकारके त्यागसे जितना अधिक धन आता जाता है, उनका अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहनेका कर्तव्य उतना ही अधिक बढ़ता जाता है। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि इस समय भारतकी लाज उनके हाथमें है।

विद्यार्थी क्या करें?

तीन विद्यार्थी लिखते हैं: "हम देश-सेवा करना चाहते हैं। आप हमें 'नवजीवन' की मार्फत बतायें कि हम पढ़ते हुए और अपनी जगह रहते हुए देश-सेवा कैसे कर सकते हैं।" इन विद्यार्थियोंने अपना नाम-धाम और अपनी उम्र लिखी है और यह भी लिखा है: "आप हमारा नाम-धाम प्रकाशित न करें। आप हमें पत्र भी न लिखें। हम पत्र पा सकनेकी स्थितिमें भी नहीं हैं।" मैं ऐसे विद्यार्थियोंको सलाह देना मुश्किल मानता हूँ। जो अपने लिखे हुए पत्रका उत्तर प्राप्त करनेका भी साहस न रखते हों, उनको क्या सलाह दी जा सकती है? फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि आत्मशुद्धि करना उत्तम देशसेवा है। क्या इन विद्यार्थियोंने आत्मशुद्धिकी साधना की है? क्या उनका मन पवित्र है? विद्यार्थियों में जो बुराइयाँ मिलती हैं क्या वे उनसे बच सके हैं? क्या वे सत्य आदि गुणोंका पालन करते हैं? पत्रका उत्तर पाने में भी उनको भय लगता है, इस स्थितिके पीछे उनका भी कुछ दोष है। विद्यार्थियों को इस भयसे मुक्त होनेका उपाय सोचना चाहिए। उनमें अपने बड़े-बूढ़ोंके