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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सामने अपने विचार रखनेका साहस होना चाहिए और उन्हें उनके सम्मुख प्रस्तुत करना सीखना चाहिए। क्या ये विद्यार्थी खादी पहनते हैं? क्या वे सूत कातते हैं? यदि वे खादी पहनते और सूत कातते हों तो भी वे देश-सेवा में भाग लेते हैं। क्या वे अवकाश मिलने पर बीमार पड़ोसियोंकी सेवा करते हैं? यदि उनके आसपास गन्दगी रहती हो तो क्या वे अवकाश निकालकर उसे अपने शरीर-श्रमसे दूर करते हैं? ऐसे अनेक प्रश्न पूछे जा सकते हैं और यदि विद्यार्थी इनका सन्तोषजनक ढंगसे उत्तर दे सकें तो देशसेवकोंमें उनका स्थान आज भी ऊँचा माना जायेगा।

वृद्ध-बाल-विवाह

मुझे पिछले हफ्ते एक प्रोफेसरके बालिकासे विवाहका किस्सा देना पड़ा था।[१] इस हफ्ते भाटिया मित्रोंने मेरे पास एक धनिक भाटिया गृहस्थके विवाहका किस्सा लिख भेजा है। ८० वर्षीय इस भाटिया गृहस्थने कन्या के बापको पच्चीस या तीस हजार रुपये देकर शादी की है। यह कहना कठिन है कि इस भाटिया गृहस्थके ८० सालकी उम्र में पांचवीं बार एक बालाके साथ विवाह करना अधिक बड़ा दोष है या धनके लोभी बापका रुपयेके लिए गरीब गायको कसाईके हाथ देनेका पाप! सुनता हूँ कि इसे रोकने के लिए कई भाटिया भाइयोंने प्रयत्न भी किया मगर धनके मदमें चूर ८० वर्षके इस बूढ़े दूल्हेने समझाने के लिए आये हुए लोगोंसे अपना रास्ता देखनेको कहा।

ऐसी निर्दयताको रोकनेके तरीके पर मैंने पिछले ही हफ्ते विचार किया था। हम अपने अन्दर शुद्ध बहिष्कारकी क्षमता विकसित करें, इसके सिवाय मुझे इसके प्रतिकारका कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझता। और बहिष्कारका अर्थ केवल अपनी बिरादरी द्वारा किया बहिष्कार ही नहीं, बल्कि सारे समाज द्वारा किया गया बहिष्कार मानना चाहिए। ऐसे आदमियोंसे उनके लिए आवश्यक भोजन तथा बीमारी और मरण-समय सहायता देनेके अलावा और सभी सम्बन्ध तोड़ लेने चाहिए। इसके बिना कामोन्मत्त लोगोंको जगाना असम्भव नहीं तो मुश्किल जरूर है।

बाल-विधवा

पाठकों को याद होगा कि कई सप्ताह पहले मैंने मूलजीभाई बारोटके बालिका से विवाहके इरादेके बारे में लिखा था । उसके बाद 'नवजीवन' के लेखके असर तथा अपनी बिरादरीके ब्रह्मभट्ट लोगों द्वारा निन्दा करनेसे, उनके विवाहका इरादा छोड़ देनेपर उन्हें धन्यवाद भी दिया था। उसके बाद मेरे पास पत्र आया था कि विवाहका इरादा छोड़ने की बात केवल दगा थी और इस तरह जातिको ठगकर मूलजीभाई वारोटने चुपकेसे विवाह कर लिया था। इस विषय में पिछले सप्ताह ही मैंने लेख लिखनेका विचार किया था, पर समयके अभाव के कारण ऐसा नहीं कर सका। अब खबर मिली है कि मूलजीभाईकी मृत्यु हो गई है और वह बाला विधवा बन गई है। भले या बुरे, किसी भी तरहके आदमीकी मृत्यु तो हम नहीं चाह सकते। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' के न्यायसे हम यही कामना करें कि बुरे व्यक्तिको सुमति मिले। मगर इस बाल-

 
  1. देखिए "टिप्पणियाँ", १०७-१९२८ का उपशीर्षक 'प्रोफेसरका बालिकासे विवाह'।