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विधवाका क्या किया जाये? अब इस प्रश्नका विचार समाजको करना है। चौदह वर्षकी बाला अगर स्वेच्छासे विधवा रहना चाहे तो इसका कोई अर्थ नहीं हो सकता। अगर बाल-विधवाके विरुद्ध ऐसा घातक लोकमत न हो तो इस आयुकी बालिका जरूर पुनर्विवाह करना चाहेगी। ब्रह्मभट्ट जातिके अगुओंको इस गायकी रक्षा करनेके लिए आगे बढ़ना चाहिए। अगर मुखियोंको अपने धर्मकी समझ न हो तो इस जातिके नवयुवकोंको उन्हें धैर्यसे समझा-बुझाकर इस बालाको मुक्ति दिलानी चाहिए। मुखिया न समझें और इस लड़कीके सगे-सम्बन्धी समझ जायें तब भी इस मसलेका हल निकाला जा सकता है। किन्तु ऐसे प्रश्नोंके हलकी इच्छा करनेवालेमें योग्यता होनी चाहिए, पवित्रता होनी चाहिए, धैर्य होना चाहिए। जिन गुणोंकी आवश्यकता शान्तिमय स्वराज्यके लिए है, उन्हीं गुणोंकी आवश्यकता बाल-विधवाके विवाह इत्यादिके बारेमें भी है।

खादीकी फेरी

वर्धा खादी-भण्डारके भाई ऋषभदास खादीकी फेरीका अपना अनुभव बताते हुए लिखते हैं:[१]

ऐसे अनुभव खादीकी फेरी करनेवाले सभी लोगोंको होते ही रहते होंगे। श्री मलकानी अपने एक पत्रमें लिखते हैं कि मेरे लिए तो खादीकी फेरी लगाना एक ऊँची राजनीतिक शिक्षा सिद्ध हो रही है। दूसरेके लिए वह धीरजकी तालीम है। ऋषभदास-जैसोंके लिए वह अधिक विश्वास बढ़ानेवाली होती है। किन्तु ईश्वरका विश्वास इतनी सहज चीज नहीं है। ऋषभदास और उनके साथियोंको तुरन्त सफलता मिली, मगर बहुत-से भक्तोंको तो ईश्वर मरणपर्यन्त जाँचता है। ईश्वर-भक्तको चाहिए कि वह सफलता के साथ ईश्वरके अस्तित्वका सम्बन्ध न जोड़े। सफलता और विफलता उसके लिए समान होनी चाहिए।

स्वावलम्बनकी पद्धति

खादी-प्रचारके मार्ग में स्वावलम्बन-पद्धतिका कोई छोटा-मोटा योगदान नहीं है। इसमें भी शंका नहीं कि वह लोकप्रिय हो सकती है और यही सबसे आसान रास्ता है। बिजोलियामें काम करनेवाले भाई जेठालाल गोविन्दजी उसी पद्धतिके चुस्त हिमायती हैं। वे लिखते हैं:[२]

इस दृष्टिकोणके अनुसार दूसरी पद्धतियाँ भी साथ-साथ चलनी ही चाहिए। किन्तु स्वावलम्बन-पद्धतिका शास्त्रीय अभ्यास थोड़ोंने ही किया है, उसका अनुभव तो उनसे भी कम लोगोंको है। इसलिए जहाँ यह चलती हो, वहांके खादी कार्यकर्त्ता

 
  1. पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। लेखकने महाराष्ट्र में खादीको फेरी-सम्बन्धी अपने अनुभव लिखते हुए बताया था कि इससे ईश्वरके अस्तित्व में उसकी मान्यता और दृढ़ हुई है।
  2. यहाँ नहीं दिया जा रहा है। लेखकके अनुसार किसानों और खेतीसे सम्बन्धित मजदूरोंको ज्यादा कपड़े की आवश्यकता नहीं रहती और खादी-उत्पादनको शिक्षा और सुविधा देनेसे वह अपनी जरूरतभरका कपड़ा बना सकते हैं।