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५६. पत्र : एम॰ बी॰ नियोगीको

सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
११ जुलाई, १९२८

प्रिय मित्र,

आपका पत्र[१] मिला। यह जानकर प्रसन्नता हुई कि श्रीयुत आवारीका स्वास्थ्य ठीक चल रहा है।

मैं जानता हूँ कि खादी के बारेमें उनके विचार बहुत तीव्र हैं। खुद मेरी राय यह है कि उनके द्वारा अपनी स्थिति स्पष्ट कर देनेके बावजूद यदि जेल-अधिकारी उन्हें खादीसे भिन्न कपड़ेकी जेलकी पोशाक पहनने के लिए मजबूर करते हैं तो उन्हें इसके कारण अनशन नहीं करना चाहिए। खादीकी बनी जेलकी पोशाकके लिए वे जो आन्दोलन कर रहे हैं, उसमें मुझे कुछ बुराई नहीं नजर आती और मेरा खयाल है कि आपको इस काम में उनकी मदद करनी चाहिए। जेलकी पोशाकके बारेमें उन्हें कोई आपत्ति करनेका अधिकार नहीं है, लेकिन वे उस पोशाकके लिए जो कपड़ा इस्तेमाल किया जाता है, उस पर आपत्ति कर रहे हैं और ऐसी आपत्ति करनेका उन्हें अधिकार है। वे यह भी कह सकते हैं कि मुझे मेरे ही खर्च पर खादीकी पोशाक बनवाकर दे दी जाये। मुझे तो इसमें कोई बुराई नजर नहीं आती कि उनके कहे बिना ही आप जेल-अधिकारियोंसे मिलकर ज्यादा शोर-गुलके बिना इस साधारण से मामलेका कोई ठीक निबटारा करवा लें।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत एम॰ बी॰ नियोगी
एडवोकेट
क्रॉडाक टाउन
नागपुर

अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १३४७४) की फोटो-नकलसे।

 

  1. ७ जुलाईका पत्र, जिसमें लिखा था कि "नागपुर-निवासी मंचरशाह आवारीने तलवार सत्याग्रह नामक एक आन्दोलन चलाया था; उस अपराध में उन्हें चार सालकी सख्त कैदकी सजा दे दी गई। ...श्री आवारीका आग्रह है के उन्हें अपनी खादीकी पोशाक पहनने दी जाये। ...जेल-अधिकारी इस बातके लिए तो राजी हैं कि वे अन्दर खादी पहनें लेकिन इस बातपर आग्रह कर रहे हैं कि उसके ऊपरसे जेलकी पोशाक अवश्य पहनें। मगर श्री आवारी इसके लिए तैयार नहीं हैं। ... अब मैं चाहता हूँ कि इस सम्बन्ध में आप अपनी राय बतायें कि क्या अन्दर निजी खादीकी पोशाक और ऊपरसे जेलको पोशाक पहनने से खादी पहननेकी प्रतिज्ञा भंग होती है और क्या जेल अधिकारियों द्वारा सुझाथा बीचका रास्ता स्वीकार करनेकी अपेक्षा अपने प्राण दे देना श्रेयस्कर है?"