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विद्यार्थियोंमें जागृति


कुमारी डावर और भेसानिया-बहनोंकी विशेष प्रशंसा की है। कहते हैं, उन्होंने अपने असीम उत्साह और साहसके बल पर बम्बईके समस्त विद्यार्थी समाजमें उत्साह और साहसकी लहर दौड़ा दी। महादेव देसाईको पूनाके एक कॉलेजके विद्यार्थीका लिखा एक पत्र मिला है। उसके अनुसार उस कालेजके विद्यार्थियोंने गत ४ तारीखको स्वेच्छासे विद्यार्थी बारडोली-दिवस मनाया, अपना अध्ययन आदिका सारा काम बन्द रखा और दिन-भर चन्दा इकट्ठा किया। लोगोंने उन्हें खुशी-खुशी चन्दे दिये। ईश्वर करे, सरकारी कालेजों और स्कूलोंके विद्यार्थियोंका यह साहस स्थायी हो और परीक्षाकी घड़ी आने पर वह किसी तरह मन्द न पड़े। विद्यार्थियोंकी ओरसे बराबर अत्यन्त हृदयस्पर्शी पत्र आ रहे हैं, जिनमें वे यह सूचित करते हैं कि बारडोली-कोषमें अपनी शक्ति-भर योगदान करनेके लिए वे किस तरह आत्मसंयम बरत रहे हैं और अपनी जरूरतोंमें कटौती कर रहे हैं। गुरुकुल कांगड़ी, सासवणेके वैश्य विद्यालय, घाटकोपरके एक छात्रावास और नवसारीके निकट स्थित सूपा गुरुकुलके विद्यार्थी एक महीने या इससे कुछ कम समयसे बारडोली-कोषमें देनेके लिए पैसा जुटानेके लिए या तो मेहनत-मजदूरी कर रहे हैं या फिर दूध-घी वगैरह न खाकर उन पर खर्च होनेवाला पैसा बचा रहे हैं। अन्य अनेक संस्थाओंके विद्यार्थी भी वैसा ही कर रहे हैं; उनके नाम इस समय मुझे याद नहीं आ रहे हैं।

बारडोलीके देहाती और विशेषकर वे अनपढ़ औरतें, जिन्हें स्वातन्त्र्य संग्रामके सैनिकोंमें गिननेसे हम अब तक इनकार करते रहे हैं, अपने मूक कष्ट-सहन और अद्भुत साहससे हमें जो सबक सिखा रही हैं, उसका असर यदि हम पर बिलकुल न पड़ता तो यह बहुत भयंकर बात होती। यदि हम कहें कि चीनके विद्याथियोंने ही उस महान् देशके स्वातन्त्र्य-संग्रामका नेतृत्व किया और आज भी मिस्र जो सच्ची स्वतन्त्रता प्राप्त करनेके लिए संघर्ष कर रहा है उसमें विद्यार्थी ही सबसे आगे हैं तो इसका कोई भी प्रतिवाद नहीं कर सकता। भारतके विद्यार्थियोंसे उससे कुछ कम करनेकी आशा नहीं की जाती। वे स्कूलों और कालेजोंमें स्वार्थ-सिद्धिके लिए नहीं, बल्कि सेवाके उद्देश्यसे जाते हैं या उन्हें चाहिए कि वे वहाँ स्वार्थ-साधनके लिए नहीं, बल्कि सेवा के लिए जायें। उन्हें राष्ट्रका सबसे उपयोगी तत्त्व होना चाहिए।

विद्यार्थियोंके मार्गकी सबसे बड़ी बाधा यह भय ही है कि इस सबका परिणाम क्या होगा। अधिकांशतः यह भय काल्पनिक ही है। इसलिए विद्यार्थियोंको जो पहला सबक सीखना है, वह है भयका त्याग। आजादी उन्हें कभी हासिल नहीं हो सकती जिन्हें स्कूलों या कालेजोंसे निकाल दिये जानेका भय है, जिन्हें गरीबीका भय है या कि जो मृत्युसे डरते हैं। सरकारी संस्थाओंमें पढ़नेवाले विद्यार्थियोंको सबसे अधिक भय उन संस्थाओंसे निकाल दिये जानेका होता है। वे समझ लें कि साहसके बिना ज्ञानार्जन मोमकी मूर्तिके समान है, जो देखने में तो सुन्दर लगती है, लेकिन हलकी-सी गर्मी पाते ही पिघलकर मोमका ढेर-मात्र रह जाती है।

[अंग्रेजी से]

यंग इंडिया, १२-७-१९२८
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