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स्नातकके प्रश्न


हिंसक हो सकता है, और सम्भव है उसमें अहिंसाकी लगन तो जरा भी न हो। परम्परासे चली आनेवाली रूढ़िके वश होकर हम अमुक वस्तुओंका उपयोग खाने-पीनेमें न करें तो इसके बलपर हम यह दावा नहीं कर सकते कि हम अहिंसक है। जिस अहिंसाका पालन रूढ़ि या विवशता के कारण किया जाये उसके कुछ अच्छे भौतिक परिणाम तो हो सकते हैं, किन्तु अपने-आपमें अहिंसा एक ऊँचे प्रकारकी भावना है, और उसका आरोपण तो उसी आदमीके सम्बन्धमें किया जा सकता है, जिसका मन अहिंसक हो और जिसके मनमें प्राणि-मात्रके प्रति करुणा और प्रेम उमड़ रहा हो। जिसने कभी मांसाहार नहीं किया, इसलिए जो आज भी मांस नहीं खाता, किन्तु क्षण-क्षण में क्रोध करता है, दूसरोंको लूटता है, लूटनेमें नीति-अनीति की परवाह नहीं करता, जिसे लूटता है, उसके सुख-दुःखकी फिक्र नहीं रखता, वह आदमी किसी तरह अहिंसक माना जाने लायक नहीं है, बल्कि यह कहना चाहिए कि वह घोर हिंसा करनेवाला है। इसके विपरीत परम्परासे चली आती रूढ़िको मानकर मांसाहार करनेवाला आदमी जिसके हृदय में प्रेम है, जो राग-द्वेषादिसे मुक्त है, सबके प्रति समभाव रखता है, अहिंसक है, वह पूजा करने योग्य है। अहिंसाकी बात सोचते हुए हम सदा खान-पानादिका ही विचार करते हैं। यह अहिंसा नहीं कही जायेगी। यह तो जड़ता है। जो मोक्षदायी है, जो परमधर्म है, जिसके निकट हिंसक प्राणी अपनी हिंसा छोड़ देते हैं, दुश्मन वैर-भावका त्याग करते हैं, कठोर हृदय पिघल जाते हैं, वह अहिंसा कोई अलौकिक शक्ति है, और वह बहुत प्रयत्नके बाद, बहुत तपश्चर्याके बाद किसी-किसीका ही वरण करती है।

पूँजी और मजदूरी

स्नातकका दूसरा प्रश्न इस प्रकार है:[१]

पूँजी और मजदूरीका भेद इसी जमानेका नहीं है। यह भेद प्राचीन कालसे चला आ रहा है। इस युगमें उसने भयंकर रूप ले लिया है क्योंकि मजदूरवर्गमें बड़ी जागृति आ गई है। और फिर इस युगमें पूंजीवालोंकी संख्या भी बहुत बढ़ गई है और पूंजीवादने बहुत उग्र स्वरूप धारण कर लिया है। पहले पूँजीवालोंमें मुख्यतः राजा होते थे, और दूसरे थोड़ेसे लोग जिनका उनसे वास्ता पड़ता था। अब तो पूंजीवालोंके काफिलेके-काफिले पड़े हुए हैं। तब यह कहा ही कैसे जा सकता है कि ऐसी स्थितिमें दुनिया आगे बढ़ रही है? किन्तु इस स्थितिको सुधारनेका उपाय पूँजीवालोंसे द्वेष करने यानी उनपर अत्याचार करनेसे नहीं निकलनेवाला है। मेरी मान्यता है कि कम अथवा अधिक प्रमाणमें पूंजी और मजदूरी, दोनों ही रहेंगी। मैं यह मानता हूँ कि मनुष्यके प्रयत्नसे दोनोंके बीचका विरोध बहुत-कुछ टाला जा सकता है। चीनके राजाका जो वचन[२] स्नातकने उद्धृत किया है, वह सोनेके समान

 

  1. प्रदन यह था कि पूँजीवादियों द्वारा मजदूरोंकी मेहनतसे खूब धन कमाते जानेका क्या यह कहा जा सकता है कि संसार आगे बढ़ रहा है?
  2. "यदि मेरे राज्य में कोई एक आदमी बिना काम किये बैठा रहे तो दूसरेको उसके निर्वाहके योग्य अतिरिक्त मजदूरी करनी पड़ेगी।"