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बम्बई के लॉर्ड विशप और भारत


आशा है, आपकी कमेटी स्थितिको गम्भीरताका अनुभव करेगी और जल्दी ही राहत प्राप्त करनेका प्रयत्न पूरे उत्साहसे करेगी।

आपका विश्वासपात्र,

दफ्तरी अंग्रेजी प्रतिकी फोटो-नकल (एस०॰ एन॰ ४१०६ ) से।

५३. बम्बईके लॉर्ड बिशप और भारत

अपने उपनिवेशवासी पाठकोंके लाभार्थ हम नीचे डॉक्टर मैकार्थरके उस विदाई-भाषणका कुछ अंश दे रहे हैं, जो बम्बईमें पाँच वर्षसे कुछ ऊपर बिशपके पदपर रहनेके बाद इंग्लैंडके लिए रवाना होनेसे पहले, उन्होंने बम्बईके टाटा मैंशनमें दिया। डॉ॰ मैकार्थर भारतमें बहुत अधिक नहीं रहे। उसमें भी बीमारीके कारण उन्हें बीचमें बाहर जाना पड़ा था। किन्तु इस थोड़े समयमें भी उन्होंने वहाँके तमाम वर्गोंका प्रेम प्राप्त कर लिया था। और यद्यपि वे इंग्लिश चर्च के प्रमुख थे तथापि हिन्दुओं, मुसलमानों, पारसियों और उन तमाम जातियोंको, जो उनके धर्मको नहीं मानतीं, अपनी तरफ आकर्षित करने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं हुई (यह काम किसी प्रकार आसान नहीं था)। उनकी इस असाधारण सफलताका रहस्य, जैसा कि न्यायमूर्ति श्री चन्दावरकर[१] ने अपने स्वागत भाषणमें कहा था, उनकी नम्रताको भावना है, जो उनकी प्रत्येक प्रवृत्तिको प्रेरित करती रही है। विद्वान न्यायाधीशने आगे कहा:

इसका कारण उनकी समझमें यही था कि सबसे पहले बिशप मैकार्थरके अन्दर नम्रताका असली धार्मिक गुण प्रचुर मात्रामें है। उन्होंने इसे धार्मिक गुण बताया; परन्तु हाल ही में उन्होंने कहीं पढ़ा था कि नम्रता इस युगको वैज्ञानिक वृत्तिका भी प्राण है। इस तरह नम्रता एक ऐसा तत्त्व है जिसे विज्ञान और धर्म दोनों गुण कहते हैं। और बिशप मैकार्थरके पास यह गुण प्रचुर मात्रामें है।

बिशप मैकार्थरने इसका जवाब देते हुए नीचे लिखे सारगर्भित शब्द कहे:

श्री मेहताने बिशपके पदके बारेमें अपने विचार बड़ी योग्यतापूर्वक प्रभावोत्पादक भाषामें प्रकट किये हैं। मुझे लगता है कि भारतमें बिशपका स्थान या तो बहत नगण्य और छोटा है, अथवा फिर वह अनेक प्रकारसे बहुत बड़ा और भव्य है। यह बात उसके बारेमें व्यक्तिकी अपनी कल्पना और उसके प्रति रुखपर निर्भर करती है। जब मैं भारतमें आया तब मेरे मनमें बड़ी झिझक और चिन्ता थी। और इस महान पदका मैं किस प्रकार निर्वाह कर सकूँगा इसके बारेमें, अपने प्रति वास्तवमें आत्मविश्वासका अभाव अनुभव कर रहा था। भारतमें बिशप बनकर आनेवाले किसी व्यक्तिके प्रति भारतीयोंका रुख क्या होगा, इसका भी मैं अन्दाजा नहीं लगा सकता था। … परन्तु भारतीयोंके रुखने मेरी सारी चिन्ताओंको भगा दिया और मैं अनुभव करने लगा कि भारतीयोंके

  1. सर एन॰ जी॰ चन्दावरकर प्रमुख शिक्षा-शास्त्री, समाजसुधारक और बम्बई उच्च न्यायालयके न्यायाधीश थे। सन् १९०० में कांग्रेसके लाहौर अधिवेशनके सभापति हुए थे।