बड़ी मदद मिल सकती है। वे अवश्य अपने हितोंका ध्यान रखें और उनकी रक्षा करें किन्तु यदि वे बिशप मैकार्थरकी उदारताको अपना सकें तो उन दो समाजोंके मतभेद मिटनेमें बड़ी सहायता मिले, जिन समाजोंको प्रकृतिने एक झंडेके नीचे लाकर खड़ा कर दिया है। मनुष्य तब तक वास्तवमें सभ्य नहीं बन सकते, जब तक कि वे अपनी सभ्यता और भलाईमें जीवमात्रको शामिल नहीं कर लेते। और इस प्रश्नपर हम धार्मिक, वैज्ञानिक अथवा राजनीतिक—चाहे जिस दृष्टिसे विचार करें—इसमें कोई शक नहीं कि बिशपने तत्त्वकी बात कही है। वह सबके सँजोकर रखने लायक है। और जैसाकि हमने अखबारोंमें पढ़ा है, अगर एक आदमी पाँच बरसोंके थोड़े-से समयमें दो जातियोंको पहलेकी अपेक्षा अधिक नजदीक लानेकी दिशामें इतना अधिक काम कर सका है तो कल्पना कीजिए कि अगर यह वृत्ति एक झंडेके नीचे रहनेवाली समस्त जनताके मनोंमें फैल जाये तो उसका कितना कल्याणकर परिणाम हो सकता है? इमर्सनने कहा है, संसार अधिकांशमें सहिष्णुता और समझौतेके आधारपर ही चल रहा है, इसमें कोई शक नहीं कि अभीष्ट अवस्थाको प्राप्त करनेके लिए प्रत्येक पक्षको कुछ देना और कुछ लेना पड़ता है। हमारी कामना है कि बिशपका यह भाषण अधिकसे-अधिक पाठकोंके हाथोंमें पहुँचकर उनपर अच्छा प्रभाव डाले।
इंडियन ओपिनियन, ३-१२-१९०३
५४. ट्रान्सवालके उपनिवेश-सचिव
श्री डब्ल्यू॰ ई॰ डैविडसनके त्यागपत्र दे देनेपर उनके स्थान पर नये उपनिवेश-सचिव श्री पैट्रिक डंकनकी नियुक्तिकी घोषणा सरकारी गजटमें की गई है। ट्रान्सवालके हमारे देशभाइयोंको इस नियुक्तिमें कोई दिलचस्पी न हो ऐसा नहीं है। हम नहीं जानते कि उन्हें इस परिवर्तनपर बधाई दें या नहीं। क्योंकि एशियाई प्रश्नके बारेमें श्री डंकनके रुखका हमें कुछ पता नहीं है। इस समय एशियाई विभाग सीधा उपनिवेश-सचिवके मातहत है; जिन्होंने यह काम अपने सहायक श्री डब्ल्यू॰ एच॰ मूअरके सुपूर्द कर रखा है। इसलिए हम इन माननीय सज्जनको याद दिलानेका साहस करते हैं कि उनके हाथोंमें एक अत्यन्त पवित्र काम सौंपा गया है। अर्थात् वे एक ऐसी अल्पसंख्यक कौमके हितोंके संरक्षक हैं जिसे एक शक्तिशाली बहसंख्यक कौमकी दुर्भावनासे संघर्ष करना पड़ रहा है। आजका जमाना आगे चलकर ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंकी स्थितिको नया मोड़ देनेवाला सिद्ध होगा। एशियाई-विरोधी कानूनों और बाजार-सूचनाओंसे सम्बन्धित अनेक प्रश्नोंपर उन्हें अपने निर्णय देने होंगे। अतः सामने पेश होनेवाले तमाम पेचीदा प्रश्नोंको सुलझानेके लिए उन्हें अपनी सारी शक्ति और सिद्धान्त-निष्ठासे काम लेना होगा। यदि साथ ही वे थोड़ीसी सहानुभूति और सहृदयता भी इनमें जोड़ दें तो हमें निश्चय है वे अपने आपको ट्रान्सवालके भारतीयोंकी कृतज्ञताका पात्र बना लेंगे।
इंडियन ओपिनियन, ३-१२-१९०३