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५५. व्यापार-संघ और युद्ध-क्षतिका मुआवजा

जोहानिसबर्गके अखबारोंमें यह खबर छपी है कि सरकार बड़ी पेढ़ियों या कम्पनियोंको, चाहे वे ब्रिटिश प्रजाजनोंकी हों या अन्यकी, मुआवजा देनेसे इनकार-सम्बन्धी अपने निर्णययपर अब भी पुनर्विचार करनेसे इनकार कर रही है। सर आर्थर लालीके इस कार्यको व्यापार-संघके अध्यक्ष श्री जॉर्ज मिचल विश्वासघातके समान समझते हैं। वे कहते हैं कि श्री चेम्बरलेनने निश्चित रूपसे यह वचन दिया था कि जिन-जिनको भी लड़ाईमें नुकसान हुआ है, उन्हें मुआवजा दिया जायेगा। इसलिए उनका खयाल है कि सरकारको छोटी और बड़ी पेढ़ियोंके बीच भेद करनेका कोई अधिकार नहीं है। हम इस विचारसे अपनी सहानुभूति प्रकट करना चाहते हैं। आखिर छोटी और बड़ी पेढ़ियोंके बीच जो भी भेद किया जायेगा वह मनमाना और पूर्णत: अवैज्ञानिक होगा। और जिन्हें व्यापारका थोड़ा भी ज्ञान है वे आसानीसे समझ सकते हैं कि जो पेढियाँ बड़ी दिखाई देती हैं उनको, संभव है, दी जा सकनेवाली हर मददकी क्योंकि उनके कामका फैलाव बहुत होता है। और ऐसी काफी पेढियाँ होंगी जिनपर इस लड़ाई असर उन छोटी पेढ़ियोंकी अपेक्षा बहुत अधिक गम्भीर हुआ हो, जिनका कारोबार छोटा होनेसे नुकसान भी थोड़ा ही होता है। फिर हम अपने निजी अनुभवसे भी जानते है कि छोटी पेढ़ियाँ बगैर मुआवजा मिले भी अपने कर्ज देनेवालोंकी मांगोंका सफलतापूर्वक मुकाबला कर सकी हैं। परन्तु जिन्हें अपनी साख बचानी है वे ऐसा नहीं कर सकतीं। इसलिए उनपर दोहरी मुसीबत आई है। अनेक कम्पनियोंने अपने साहूकारोंको ब्याज-सहित रकम अदा की है। और अब उनके सामने सरकारका निर्णय है कि उन्हें उनके हकका मुआवजा नहीं दिया जायेगा। श्री मिचलने यह धमकी दी है कि वे इंग्लैंडकी सरकार तथा ब्रिटिश संसदतक अपनी पुकार भेजेंगे। परन्तु हमारा खयाल है कि अगर यहाँकी सरकार इस माँगपर अनुकूलतापूर्वक विचार करने के लिए राजी नहीं है, तो इंग्लैंडकी सरकारसे दरखास्त करके भी लाभकी बहुत कम सम्भावना है। फिर भी हमारी हार्दिक कामना है कि व्यापार-संघको उसके प्रयत्नोंमें यश मिले और वह इंग्लैंडकी सरकारके सामने अपनी माँगका औचित्य सिद्ध कर सके।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ३-१२-१९०३