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५६. श्रम-आयोगका प्रतिवेदन

श्रम-आयोगका प्रतिवेदन प्रकाशित हो गया है। फिलहाल हम श्री क्विन और श्री व्हाइटसाइडके अल्पसंख्यक प्रतिवेदनपर ही विचार करना चाहते हैं। हम जानते हैं कि ये सज्जन बड़ी कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं। फिर भी हमें यह कहना चाहिए कि उनके निर्णय न्यायपूर्ण है; इसलिए नहीं कि उन्होंने अपने कथनकी पुष्टिमें कुछ आँकड़े या, अपने मन्तव्योंका समर्थन करनेके लिए, बहुत-से गवाह पेश किये हैं। बल्कि हमारा खयाल है कि, उनकी पुष्टिके लिए ऐसी किन्हीं चीजोंकी जरूरत ही नहीं है, क्योंकि उनके कथन लगभग स्वयंसिद्ध सत्य हैं। जो स्वार्थ और दुर्भावसे अन्धे नहीं हैं, उन्हें इन दो आयुक्तोंकी निम्नलिखित राय माननेमें कोई आपत्ति नहीं होगी:

हमारी राय है कि जो लोग इस उपनिवेशमें स्थायी रूपसे नहीं बसना चाहते और जो इस उपनिवेशके स्थायी वैभव अथवा भावी परिणामोंका बगैर विचार किये आज ही अपने उद्योगका विस्तार करना चाहते हैं, उनकी बातोंकी बहुत सावधानीसे जाँच करके ही उद्योगके लिए आवश्यक वतनी मजदूरोंकी निश्चित संख्या तय की जा सकेगी, इसके बगैर नहीं।

गवाहियोंका जिन्होंने थोड़ा भी अध्ययन किया है उन्हें यह समझने में कठिनाई नहीं होगी कि ये शब्द कितने यथार्थ हैं। फिर उनकी "आवश्यकताओं" की परिभाषा भी हमारी रायमें आदर्श है। इसके बाद इन "आवश्यकताओं" की पूर्तिके लिए देशमें पर्याप्त मजदूर हैं या नहीं यह जाननेके लिए हजारों प्रश्न करनेकी कोई जरूरत नहीं रह जाती। आयुक्त आगे कहते हैं:

इसलिए हम आवश्यकताओंका यह अर्थ लेते हैं कि उत्पादन और व्ययकी दृष्टिसे लड़ाईसे पहले ट्रान्सवालके उद्योग जिस अच्छी अवस्थामें थे उनको उस हालतमें लानेके लिए तथा इस उपनिवेशके गोरे और रंगदार दोनों प्रकारके निवासी किस प्रकार वैभवशाली हो सकते हैं इस बातको ध्यान रखते हुए इन उद्योगोंका अधिकसे-अधिक विस्तार करनेके लिए कितने मजदूरोंकी जरूरत होगी।

यही सारी परिस्थितिका मर्म है। अगर पूँजीपतियों और केवल वर्तमान पीढ़ीके लाभके लिए उपनिवेशका शोषण करके उसे वैभवशाली बनाना है तो इसमें कोई शक नहीं कि आयोगके बहुसंख्यक सदस्योंका प्रतिवेदन पूर्णत: उपयुक्त है। परन्तु यदि उपनिवेशका विकास क्रमश: करना है तो इसमें रत्तीभर भी सन्देह नहीं कि उपनिवेशके अन्दर ही जितने और जैसे मजदूर मिल सकें उनसे उसे सन्तोष मानकर काम चलाना चाहिए। अस्वाभाविक तरीकोंकी मददसे तौरपर लाई गई वृद्धि और स्वाभाविक क्रमिक विकास इन दोनोंमें जमीन-आसमानका अन्तर होता है। पहली वस्तु अस्वाभाविक परिस्थितियोंकी उपज होगी, देखनेमें सुन्दर और लुभावनी होगी, परन्तु परिणाममें हलाहल। दूसरी चीज निश्चय ही देखने में इतनी लुभावनी नहीं होगी, परन्तु उसका फल स्थायी लाभ पहुंचानेवाला होगा। प्रयत्न करके गिरमिटिया मजदूरोंके हमलेको रोकना संभव होगा या नहीं, इसमें हमें सन्देह है, तथापि हम यह कहे बगैर नहीं रह सकते कि श्री क्विन और श्री व्हाइटसाइडने अपने कर्तव्यका पालन निर्भयतापूर्वक कर दिया है, जिसके लिए वे हार्दिक बधाईके पात्र है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ३-१२-१९०३