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५७. ट्रान्सवालमें एशियाइयोंका संरक्षक

प्रिटोरिया स्थित एक संवाददाताने हमारे पास एक छपा हुआ फार्म भेजा है जिसपर सहायक उपनिवेश सचिव श्री डब्ल्यू॰ एच॰ मूअरके दस्तखत हैं और तारीख ५ नवम्बर पड़ी है। इसमें प्रिटोरियामें रहनेवाले तमाम एशियाइयोंको सूचित किया गया है कि,

प्रिटोरियाके एशियाई बाजारमें जमीनोंके लिए तारीख १ जनवरी १९०४ से लेकर इक्कीस वर्ष अथवा इससे कम अवधिके लिए जो पट्टे लेना चाहें उन्हें अपनी अर्जियाँ तारीख ३० नवम्बर १९०३ की दोपहरतक एशियाइयोंके संरक्षक श्री चैमनेके पास दे देनी चाहिए, जो अजियोंपर विचार करके जमीनोंका वितरण करेंगे।

इसके बाद वे शर्तें है जिनके आधारपर विचार और वितरण होगा। अपने पिछले अंकोंमें हम बता चुके हैं कि एशियाइयोंको जबरदस्ती अलग बसाने और इन बाजारों के लिए चुने गये स्थानोंके बारेमें हम अपने विचार प्रकट कर चुके हैं। प्रिटोरियाके बाजारोंके बारेमें भी वही बात लागू होती है। यह पृथक बस्ती कोनेमें एक तरफ है और उसके तथा शहरके बीच एक नाला पड़ता है। भारतीयोंका सारा व्यापार बहुत दूर प्रिन्सल स्ट्रीटमें केन्द्रित है। वहाँसे अपने कारोबारको उठाकर इस बस्तीमें जाना अपने हाथ अपने पांवपर कुल्हाड़ी मारना है। परन्त आज प्रश्नके इस पहलूपर नहीं, हम श्री चैमनेके पदपर कुछ कहना चाहते हैं। हमें बताया गया है कि उन्हें भारतका बड़ा विशाल अनुभव है। उनके विचार उदार हैं और जिनका उन्हें संरक्षक नियुक्त किया गया है उनके प्रति उनके हृदयमें सहानुभूति बहुत बड़ी मात्रामें है। सबसे पहले तो हम यह बता दें कि इस पदका नाम हमें बहुत अच्छा नहीं लगता। उससे हमें गिरमिटिया मजदूरीसे सम्बन्धित गंध आती है। और दक्षिण आफ्रिकामें तो इस पदका अर्थ यही लगाया जाता है कि नेटालमें जिस प्रकार गिरमिटिया मजदूरोंके हितोंकी देखभाल करनेवाला अधिकारी होता है उसी तरहका यह भी कोई अधिकारी होगा। परन्तु हम नामपर भी नहीं झगड़ना चाहते। मुद्देकी बात तो यह है कि क्या श्री चैमने भारतीयोंको सन्तोष हो, इस प्रकार अपना काम कर रहे है? अब अगर हमारे संवाददाताका कहना सही है तो श्री चैमने भारतीयोंके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करनेकी इच्छा रखते हुए भी ऐसा नहीं कर सकेंगे। क्योंकि उन्हें कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। एशियाई मुहकमेका सम्पूर्ण प्रबन्ध और संचालन उपनिवेश-सचिवके हाथों में है और श्री चैमनेको केवल उनके हाथके नीचे काम करना है। अगर बात यही है तो हमें यह कहना पड़ेगा कि हालत बड़ी अजीब है। नेटालमें प्रवासियोंके संरक्षकके हाथोंमें भी कहीं अधिक सत्ता है और इस पदका वहाँ वजन और प्रभाव है। वहाँ वह गवर्नरके प्रति जिम्मेदार है। परन्तु प्रिटोरियामें काम दूसरे ढंगसे होता है। एक भले आदमीको संरक्षक तो बना दिया, किन्तु उसे काम करनेमें पहलका अधिकार नहीं दिया गया। अगर हमें गलत जानकारी मिली है तो सरकारने उनके लिए जो कानून और नियम बना दिये हैं उनका तनिक भी उल्लंघन किये बिना मनुष्य-मनुष्यके बीच सम्मानपूर्वक न्याय करनेका सुवर्ण अवसर श्री चैमनेके सामने उपस्थित है। रास्ता चलता आदमी भी एक निगाहमें जान सकता है कि जिन लोगोंके पास आज बाजारोंसे बाहर व्यापार-व्यवसाय करनेके परवाने हैं ऐसे से ब्रिटिश भारतीयोंको इस वर्षके अन्तमें उन बस्तियोंमें भगा देना बहुत बड़े कलंककी बात है।