मातहत यहाँ भी—भले कुछ बदले हुए रूपमें ही क्यों न हो—ऐसा भेदभाव बरतना उचित है? और क्या वे यह नहीं जानते कि भारतकी ऊँची जातियोंके लोगोंमें जो भी कमियाँ हों, कमसे-कम वे अपने स्वार्थ-साधनके लिए तो परिवर्तित रूपमें गुलामीकी प्रथाको आश्रय नहीं देते? ट्रान्सवालमें बरसों रह लेनेके बाद और उसे भारतकी अपेक्षा अधिक अपना घर बना लेनेके बाद यदि ये मजदूर जबरदस्ती भूखों मरनेके लिए भारत भेज दिये जायेंगे तो क्या उससे इनका या भारतके अन्य निवासियोंका आर्थिक लाभ होगा? क्या यह किसी भी अर्थमें उचित कहा जा सकता है कि मनुष्योंके एक समाजको महज इस आशंकासे बौना बना दिया जाये कि वह मनुष्योंके दूसरे समाजसे स्पर्धा करने लगेगा? इस परिस्थितिको रोकनेका क्या यह रास्ता अधिक सीधा नहीं है कि गिरमिटिया मजदूरोंको लाना ही बन्द कर दिया जाये और उपनिवेशको अपने स्वाभाविक क्रमसे धीरे-धीरे विकसित होने दिया जाये?
इंडियन ओपिनियन, १०-१२-१९०३
६१. लेडीस्मिथमें भारतीयोंके परवाने
लेडीस्मिथके टाउन क्लार्क श्री लाइन्सने शहरके परवाना-अधिकारीकी हैसियतसे शहरके भारतीयोंको सूचनाएँ भेजी हैं। उनमें विक्रेता-परवाना अधिनियमकी वे धाराएँ बताई गई हैं जिनमें व्यापारके परवाने देनेकी शर्तोंका उल्लेख है। साथमें प्रार्थनापत्रोंके फार्म भी भरनेके लिए भेजे हैं, जिनमें निम्न महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद आया है:
मैं पाबन्द होता हूँ कि शनिवारको छोड़कर किसी भी दिन शामको पाँच बजे बाद अपनी दूकानको व्यापारके लिए खुला न रखूँगा। मैं अपने कारोबारको जगहको सरकारी छुट्टीके सब दिनोंमें बन्द रखनेके लिए भी पाबन्द होता हूँ।
कुछ सप्ताह पूर्व ही हमने श्री लाइन्स और लेडीस्मिथके ब्रिटिश भारतीयोंकी मुलाकातकी खबर छापी थी, जिसमें श्री लाइन्सने धमकी दी थी कि यदि ब्रिटिश भारतीय अपनी दुकानें शामको पाँच बजे बन्द करना स्वीकार न करेंगे तो वे उनके परवाने अगले वर्षके लिए नये न करेंगे। अब उन्होंने कदम आगे बढ़ाया है, और स्पष्टतः धमकी अमलमें लायी जायेगी। हम अपना यह मत व्यक्त कर हो चुके हैं कि यदि सम्भव हो तो लेडीस्मिथके भारतीय दुकानदारोके लिए श्री लाइन्सके प्रस्तावको मान लेना ठीक होगा। हमें सन्देह नहीं, इससे अन्तमें बहुत भलाई होगी। निःसन्देह यह प्रश्न उठता है कि क्या भारतीय व्यापारी पाँच बजे सायंकाल अपनी दूकानें बन्द करके अपना व्यवसाय कर सकेंगे। सम्भव है उनका अधिकांश व्यवसाय केवल पांच बजे बाद ही होता हो। इस स्थितिमें इस माँगकी पूर्ति उनके लिए असम्भव होगी; किन्तु यदि ऐसी बात हो और यह अन्तत: सिद्ध भी किया जा सके तो, हमारा खयाल है, श्री लाइन्समें इतनी न्यायबुद्धि अवश्य होगी कि वे पाबन्दीकी शर्तको छोड़ ही दें। यह पूर्णतः आपसी समझौतेका मामला है। हमें भरोसा है कि लेडीस्मिथके भारतीय काफी संयमसे काम लेंगे और यह देखेंगे कि जो मार्ग हमने सुझाया है उसका अवलम्बन करने में उनका हित है। यदि दूकानें बन्द करनेका यह नियम समस्त व्यापारियोंपर लागू न होता हो तो निःसन्देह उक्त आश्वासन