परिषदके कार्यक्रममें इस वर्षकी बाजार-सूचना ३५६ के संशोधनपर माननीय उपनिवेशसचिवके नामपर जो प्रस्ताव पेश है, उसके सम्बन्धमें विधान-परिषदके विचारार्थ एक प्रार्थनापत्र[२] पहले ही भेजा जा चुका है। मेरे संघकी विनती है कि श्रीमान उसपर सहानुभूतिपूर्वक विचार करें।
तथापि कुछ बातें ऐसी हैं जिनका उल्लेख प्रार्थनापत्रमें ठीक तरहसे नहीं किया जा सकता था।
इसलिए मेरा संघ यह निवेदन आपकी सेवामें प्रस्तुत करनेकी अनुमति चाहता है।
प्रार्थनापत्र में जिस विषयकी चर्चा की गई है वह भारतीय समाजके लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और अगर यूरोपीय व्यापारियोंके दृष्टिकोणसे देखा जाये तो उनके लिए उसका कोई तुलनात्मक महत्त्व नहीं है।
अगर माँगी गई राहत नहीं मिलती तो आगामी १ जनवरीको ब्रिटिश भारतीय व्यापारियोंकी स्थिति अत्यन्त संकटग्रस्त हो जायेगी।
आप परिस्थितिको पूरी तरह समझ सकें, इस उद्देश्यसे सरकारके प्रति सम्पूर्ण आदर प्रकट करते हुए मैं कहता हूँ कि बाजारोंके लिए जो स्थान चुने गये हैं वे व्यापारकी दृष्टिसे निकम्मे हैं। लगभग प्रत्येक स्थान शहरसे बहुत दूर है और वहाँ मामूली सुविधाएँ भी नहीं हैं। वहाँ जानेका मतलब भारतीयोंके लिए बिलकुल नये कस्बे या गाँव बसाने जैसा ही होगा।
इस बातका अधिक विस्तार करना आवश्यक है. क्योंकि आप देशसे परिचित हैं, और कमसे-कम कुछ बाजारोंके स्थानोंकी स्थिति भी जानते हैं। इसलिए अन्य कारणोंसे नहीं तो केवल इसी कारणसे सही, निवेदन यह है कि वर्तमान परवानेदारोंको छेड़ना उनके लिए अत्यन्त संकटावह होगा।
मेरे संघको पता है कि परिषदके कुछ माननीय सदस्य मानते हैं कि उपनिवेशमें लड़ाईसे पहले जितनी भारतीय आबादी थी उसकी अपेक्षा अब बहुत अधिक है और उपनिवेशमें ऐसे बहुत-से भारतीय घुस आये हैं जो पहले यहाँ नहीं रहे हैं। मैं आपको निश्चय दिलाना चाहता हूँ कि वास्तवमें बात ऐसी नहीं है। कुछ नये लोग देशमें जरूर आ गये हैं। परन्तु परवानोंके सिलसिले में पिछले दिनों जो मुकदमे चलाये गये थे उनके फलस्वरूप बहुत-से लोगोंको देशको सीमासे बाहर कर दिया गया है और उन नये लोगोंमें से तो शायद ही किसीके पास परवाना हो।
इसलिए मेरे संघकी यह विनती नये लोगोंकी तरफसे नहीं, परन्तु सच्चे शरणार्थियोंकी तरफसे है। उन्हें बाजारों में भेजने के इस प्रयासका एकमात्र कारण यह है कि लड़ाईसे पहले वे ट्रान्सवालमें व्यापार नहीं करते थे या विशेषत: जिन स्थानोंमें व्यापार करनेके परवाने अब उनके पास हैं उनमें वे लड़ाईके पहले व्यापार नहीं करते थे। यह एक ऐसा भेद है कि उसका औचित्य समझमें आना कठिन है। असलमें छोटे-छोटे शहरोंमें भारतीय व्यापारियोंकी तथाकथित होड़का भय इस कदमकी जड़में है। परन्तु मेरे संघका नम्र निवेदन तो यह है कि ऐसे छोटे शहरोंमें बहुत कम भारतीय व्यापारी हैं। इनमें से अधिकांश तो मुख्यतः जोहानिसबर्गमें