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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

हैं, जहां कि यह दुर्भाव इतना तीव्र नहीं है और न वहाँ ऐसी भारी होड़ ही अनुभव की जा रही है, क्योंकि वहाँ यूरोपीय व्यापारियोंकी संख्या बहुत अधिक है। तब क्या इन थोड़े-से गरीब भारतीय व्यापारियोंकी रोटी छीनना ठीक है, क्योंकि जितनी भी बार यह कहा जाये, थोड़ा ही होगा कि भारतीयोंका बाजारों के बाहर जो व्यापार है उसे सफलताकी सम्भावनाके साथ बस्तियोंमें ले जाना असम्भव है? मेरा संघ इस सम्बन्धमें कुछ उदाहरण पेश करना चाहता है:

उदाहरणके लिए, रस्टेनबर्गमें केवल एक भारतीय व्यापारी व्यापार कर रहा है, यद्यपि वह लड़ाईसे पहले वहाँ व्यापार नहीं करता था। यहाँ क्षेपक रूपमें कहा जा सकता है कि वह जोहानिसबर्गमें जरूर वर्षांतक व्यापार करता रहा है। क्या यह अकेला भारतीय बाजारमें चला जाये जो कि लगभग बियाबान जंगल-सा है, जहाँ कोई आवागमन नहीं और जहाँ अकेले एक आदमीका रहना भी खतरनाक है? और क्या केवल इस आदमीको हटा देनेसे आज शहरमें जो दूसरे व्यापारियोंका व्यापार चल रहा है उसमें कोई कहने लायक अन्तर पड़ जायेगा?

श्वीज़र रेनेककी बात तो इससे भी गम्भीर है। वहाँ दो व्यापारी हैं, जो लड़ाईसे पहले वहाँ व्यापार नहीं करते थे, यद्यपि उनमें से कमसे-कम एक लड़ाईसे पहले ट्रान्सवालमें व्यापार करता था। इस जगह बहत कम मकानात हैं और आबादी भी बहत विरल है। क्या ये दो आदमी उस बस्तीमें जाकर कुछ भी व्यापार कर सकेंगे, जो बहुत दूर है और जहाँ आज एक भी आदमी नहीं रहता?

इस तरहके बहुत-से उदाहरण दिये जा सकते हैं। उनसे प्रकट है कि प्रयोगमें लाये जानेवाले साधन और प्राप्त किये जानेवाले परिणामके बीच हद दर्जेका अनमेलपन है। संघका मत है कि इन देशभरमें बिखरे व्यापारियोंको बाजारोंमें भेजना बीमारीको भगानेका अत्यन्त उग्र उपाय है और इससे वह बीमारी अच्छी नहीं होगी, जो मौजूद बताई जाती है। हाँ, अगर नये आनेवाले भारतीयोंको बाजारों के बाहर व्यापार करनेके परवाने देनेकी इच्छा हो तो इसको मेरा संघ पूरी तरह समझ सकता है। फिर भी जिनका व्यापार-व्यवसाय निःसन्देह जम गया है उनके प्रति उपेक्षापूर्ण रुखको सहन करना बहुत कठिन है, क्योंकि पिछले वर्ष जो परवाने दिये गये थे वे भारतीयोंने खुले तौरपर जायज तरीकेसे प्राप्त किये थे। ब्रिटिश अधिकारियोंने भी उनको ये परवाने यह जानते हुए कि वे भारतीय हैं और लड़ाईसे पहले अपने क्षेत्रोंमें व्यापार नहीं करते थे, इस आधारपर दिये थे कि वे शरणार्थी हैं। इन परवानोंको जारी करते समय कोई शर्ते भी नहीं लगाई गई थीं।

इसलिए मेरा संघ आदरपूर्वक पूछता है कि क्या इन मुट्ठीभर भारतीयोंको इस तरह परेशान करना वाजिब है, जिन्होंने अपना व्यापार अच्छी तरह जमा लिया है, जिनके भण्डारोंमें बहुत-सा माल पड़ा है और जिनमें से कुछने अपने कब्जेकी जगहोंके लम्बे पट्टे लिखा रखे हैं? मेरा संघ मानता है कि आप केवल यूरोपीयोंके हितोंका ही नहीं, बल्कि उन सबके हितोंका प्रतिनिधित्व करते हैं, जो इस उपनिवेशमें बस गये हैं। और विशेष रूपसे उनका, जो ब्रिटिश प्रजाजन हैं। इसलिए मेरा संघ आशा करता है कि उसने आपके सामने जो प्रश्न रखा है उसका अध्ययन करनेके लिए आप जरूर समय निकालेंगे और न्यायोचित निर्णयपर पहुंचेंगे।

आशा है आप कष्टके लिए क्षमा करेंगे।

आपका आज्ञाकारी सेवक,
अब्दुल गनी
अध्यक्ष, ब्रिटिश भारतीय संघ


[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १७-१२-१९०३