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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

सभा करना, जिसमें लगभग पाँचसौ लोग उपस्थित हों, बहुत ही प्रशंसाके लायक काम है, और हम नेटाल-वासी भारतीयोंके लिए अनुकरणीय है।

अब हम प्रस्तुत विषयपर आते हैं। संक्षेपमें स्थिति यह है:

बाजार-सूचना उन ब्रिटिश भारतीयोंके परवानोंमें हस्तक्षेप नहीं करती, जो यह दिखा सकते हैं कि लड़ाई छिड़ते समय उनके पास बाजारोंसे बाहर व्यापार करनेके परवाने थे। अब सरकार यह संरक्षण उन लोगोंको भी देना चाहती है जो लड़ाई छिड़ते समय बिना परवानोंके व्यापार करते थे। फिर तो केवल वे भारतीय शेष रह जाते हैं जो यद्यपि लड़ाईसे पहले व्यापार तो नहीं करते थे, परन्तु शरणार्थी होनेके कारण ब्रिटिश अधिकारियोंसे परवाने प्राप्त कर सके थे। इसलिए ब्रिटिश भारतीयोंने विधान परिषदको प्रार्थनापत्र दिया है और विनती की है कि इस अन्तिम वर्गके व्यापारियोंको भी संरक्षण दिया जाये। उनका तर्क कुछ इस प्रकार है:

जिन लोगोंको आप संरक्षण नहीं देना चाहते उनकी संख्या बहुत छोटी है और जहाँ तक यूरोपीयोंकी भावनाका प्रश्न है, वह विचार करने योग्य भी नहीं है। करीब छः सौ परवाने हैं। इनमें से उक्त अर्थमें नये प्रकारके व्यापारियोंको अलग करके आप करीब सौ आदमियोंको बस्तियोंमें खदेड़ सकेंगे। इससे होड़में मुश्किलसे कोई अन्तर पड़ेगा। आपने इन परवानेदारोंकी रक्षा करनेका बार-बार वचन दिया है। श्री चेम्बरलेनने यह वचन दिया है, और लॉर्ड मिलनरने भी दिया है। लड़ाईसे पहले ब्रिटिश एजेंटोंने गणराज्यकी हुकूमतसे कारगर अर्जी-पुर्जा करके ब्रिटिश भारतीयोंको व्यापार दिलाया था। इसलिए यद्यपि आपने सिंहके समान शक्ति पा ली है, फिर भी आपको अपनी इस शक्तिका उपयोग इन थोड़ेसे आदमियोंको कुचल कर उनका अस्तित्व मिटा देने में नहीं करना चाहिए। हमने कोई अपराध नहीं किया है। आप हम पर ऐसे दोषोंका आरोप कर रहे हैं, जिनकी अगर उचित जाँच की जाये तो आप देखेंगे कि वे कोई दोष ही नहीं हैं; और व्यापारिक ईर्ष्याको भी इतना बढ़ावा नहीं देना चाहिए कि उससे निहित अधिकार खतरेमें पड़ जायें।

हमें ऐसा मालूम होता है कि ऐसी दलीलका, जैसी यह है, कोई जवाब नहीं है और जोहानिसबर्गमें वेस्ट ऐंड हॉलकी बड़ी सभामें वक्ताओंने जो तथ्य बताये, वे सही हैं। तो क्या सरकारने जो रुख धारण किया है वह परमश्रेष्ठकी विधान परिषदके सदस्योंको ईश्वरके मार्गदर्शनमें सौंपनेकी बातसे मेल खाता है? और क्या उसकी "परिषदके सदस्योंकी मन्त्रणाएँ ईश्वरकी महिमाको बढ़ायें," इस भावभरी प्रार्थनासे कोई संगति है? हम स्पष्ट रूपसे कहते हैं कि इसमें हमें ईश्वरका हाथ दिखाई नहीं देता। हम यह भी नहीं मानते कि सैकड़ों निर्दोष व्यापारियोंको बरबाद कर देनेसे किसी प्रकार भी ईश्वरकी महिमा बढ़ सकती है, या राज्य समृद्ध बन सकता है। उधर हम देखते हैं कि पूर्वी ट्रान्सवाल पहरेदार-संघ (ईस्ट रैड विजिलैट्स) उपर्युक्त संशोधन करनेकी हिम्मत करनेपर सरकारके खिलाफ डंडा लेकर खड़ा हो गया है। वह इस बातपर आगबबूला हो रहा है कि जिस सरकारने लड़ाईसे पहले ब्रिटिश भारतीयोंको पिछली प्रजातन्त्री सरकारके कानूनोंका भंग करके भी बगैर परवानोंके व्यापार करने में मदद दी, वही अब उन परवानोंको कानूनी मानकर उन्हें वही संरक्षण दे रही है और विलम्बसे ही सही, उनके साथ न्याय कर रही है। इसलिए उन्होंने विधान परिषदको एक अर्जी भी भिजवाई है। इस तरह सरकारके सामने एक तरफ ब्रिटिश भारतीयोंकी अत्यन्त युक्तिसंगत विनती है, जिसमें सरकारसे एक बहुत छोटा न्याय माँगा गया है, और दूसरी तरफ पूर्वी ट्रान्सवालके पहरेदार-संघके सदस्य विरोधी हैं, जिनकी मांग है कि भारतीयोंके साथ किसी प्रकार भी न्याय न किया जाये। वॉक्सबर्गके इन भले आदमियोंकी दलीलपर दुःख होनेके साथ-साथ हँसी भी आती है। उनका खयाल