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जोहानिसबर्गमें भारतीयोंकी आम सभा

है कि अगर सरकारने बाजार-सूचनामें किसी प्रकारका भी संशोधन किया तो यह ट्रान्सवालके गोरे निवासियोंके साथ विश्वासघात होगा। क्या ये भले आदमी क्षणभर यह विचार भी करनेका कष्ट करेंगे कि इस तरहकी दलील देकर वे अपने आपको कितनी हास्यास्पद स्थितिमें रख रहे हैं, क्योंकि सरकारके लिए भारतीयोंके प्रति पहले घोर विश्वासघात किये बगैर गोरे निवासियोंको किसी प्रकार भी वचन देना असम्भव है? हमारे ये मित्र यह उम्मीद कैसे कर रहे हैं कि सरकार भारतीयोंको निश्चित रूपसे बस्तियोंमें भेजनेका निश्चित वचन दे, जब कि साम्राज्य-सरकारने इसी प्रश्नको लेकर युद्धकी घोषणातक कर दी थी? बाजार-सूचना निकल चुकी है, यह सही है। परन्तु हमने जो-जो बातें कही हैं उनको ध्यानमें रखते हुए इसका अर्थ यह तो नहीं लगाया जा सकता कि वह गोरे निवासियोंको किसी प्रकारका वचन है, यद्यपि हम यह स्वीकार करते हैं कि इस सूचनाको जारी करना सरकारकी कमजोरीका चिह्न है। परन्तु सूचना निकलनेपर यह तर्क असंगत है कि अब सरकारको उसमें अपनी पसन्दके मुताबिक किसी प्रकार भी संशोधन करनेका अधिकार नहीं है। हमारी तो विनीत राय है कि ट्रान्सवालकी शक्तिशाली सरकारके सामने सीधा रास्ता यह है कि उसने ब्रिटिश भारतीयोंको जो वचन दिये हैं उनका वह पालन करे; और केवल यही नहीं, इन वचनोंके अलावा भी उसका यह कर्तव्य है कि वह बलवान पक्ष अर्थात् यूरोपीयोंके विरोध और दुर्भावोंसे कमजोरों अर्थात् भारतीयोंकी रक्षा करे, क्योंकि स्वार्थ बलवानोंकी न्याय-भावनाको अन्धा कर सकता है। इसलिए सरकारको उनके विरोधसे विचलित नहीं होना चाहिए—भले ही वह जोरदार भी क्यों न हो—बल्कि परस्पर-विरोधी स्वार्थोंके बीच न्यायकी तराजूके पलड़े बराबर रख कर विशुद्ध न्याय ही करना चाहिए।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १७-१२-१९०३

६८. जोहानिसबर्गमें भारतीयोंकी आम सभा

पिछले शुक्रवारकी सुबह जोहानिसबर्ग में हमारे भाइयोंकी एक बड़ी सभा हुई थी। उसमें २४ घंटेकी सूचनापर गाँव-गाँवसे प्रतिनिधि शामिल हुए, जिसके लिए उन्हें शाबाशी दी जानी चाहिए। विख्यात पेढ़ी मुहम्मद कासिम कमरुद्दीनके संचालक सेठ अब्दुल गनी सभाके अध्यक्ष थे। उन्होंने प्रभावशाली भाषण दिया और साबित किया कि सरकार कानूनमें जो फेरफार करनेवाली है वे काफी नहीं हैं। इस समय ट्रान्सवालमें भारतीय व्यापारी तीन तरहके हैं: (१) जो लड़ाईसे पहले परवाने लेकर व्यापार कर रहे थे; (२) जो बगैर परवाना लिए व्यापार करते थे; और (३) ब्रिटिश शासन आनेके बाद जिन्हें परवाने दिये गये। लड़ाईसे पहले जो परवाने लेकर व्यापार करते थे उन्हें नये परवाने दिये जा रहे हैं। अब सरकार यह सुधार करना चाहती है कि दूसरे वर्गके लोगोंको, अर्थात् लड़ाईसे पहले जो व्यापार करते थे, परन्तु जिनके पास तब परवाने नहीं थे, उन्हें भी परवाने दे दिये जायें। इस सभाका उद्देश्य यह था कि तीसरे वर्गके व्यापारियोंके साथ भी न्याय हो; अर्थात् जो लोग पहले व्यापार नहीं करते थे परन्तु जिन्हें ब्रिटिश अधिकारियोंने परवाने दे दिये थे उन्हें भी परवाने दिये जायें। स्वयं चेम्बरलेनने भी कहा था कि परवाने उन्हें भी जरूर दिये जाने चाहिए।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १७-१२-१९०३