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६९. एक सामान्य पत्र[१]
ब्रिटिश भारतीय संघ


२१-२४, कोर्ट चेम्बर्स
रिसिक स्टीट
जोहानिसबर्ग
दिसम्बर १७, १९०३


महोदय,

इस वर्षकी एशियाई बाजार-सूचना ३५६ में प्रस्तावित संशोधनके सम्बन्ध में प्रिटोरियाके असोसिएटेड चेम्बर ऑफ कॉमर्सकी बैठक समीप आ रही है। इस बातको ध्यानमें रखते हुए मैं ब्रिटिश भारतीय संघ (ब्रिटिश इंडियन असोसिएशन) की ओरसे एक संक्षिप्त विवरण आपके विचारार्थ नम्रतापूर्वक प्रस्तुत करता हूँ।

परम माननीय श्री चेम्बरलेन जब ट्रान्सवाल आये थे, तब उनसे ब्रिटिश भारतीयोंका एक शिष्टमण्डल मिला था। उन्होंने शिष्टमण्डलके सदस्योंको परामर्श दिया था कि वे यथासंभव उपनिवेशवासी यूरोपीयोंसे एकमत होकर चलें। मैं आपको विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि मेरा संघ जिस समुदायका प्रतिनिधित्व करता है उसके सदस्योंकी सदा यही अभिलाषा रही है।

मैं समझता हूँ कि भारतीयोंके विरुद्ध आम आपत्ति उनके रहन-सहनके तरीकेके सम्बन्धमें है। इसलिए मैं यह कहना चाहता हूँ कि, वे इस दिशामें क्या कर सकते हैं—अभीतक उन्हें यह दिखानेका अवसर ही नहीं दिया गया है। उनकी स्थितिकी व्याख्या कभी स्पष्ट रूपसे नहीं की गई। वे अनिश्चितताको स्थितिमें रहनेके लिए बाध्य किये गये हैं। कुछ भी हो, मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि सफाई या व्यवसाय-स्थानोंकी निवास-स्थानोंसे पृथकताके सम्बन्धमें जो भी नियम बनाये जायेंगे, भारतीय उनको तत्काल मान लेंगे। वस्तुत: मेरे संघने सरकारकी सेवामें निवेदन-पत्र भेजा है कि नये प्रार्थियोंको व्यापारिक परवाने देना नगरपालिकाके नियन्त्रणमें रहे; किन्तु सत्ताके दुरुपयोगके विरुद्ध संरक्षण देनेके निमित्त उन्हें अदालतमें अपीलका अधिकार रहे। यह बात भारतीय समाजको बिलकुल स्वीकार होगी।

उपनिवेशके बहुतसे लोगोंके मनमें यह भय है कि भारतीयोंका उपनिवेशमें प्रवास अनियंत्रित रहेगा तो वे अपने संख्या-बलसे ही गोरी आबादीको दबा लेंगे। मेरा संघ इस आशंकासे परिचित है। यद्यपि मेरा संघ इस प्रकारके प्रत्येक भयको निराधार समझता है, फिर भी अपनी यूरोपीयोंके साथ सहयोगकी इच्छाकी सचाई बतानेके लिए उसने कुछ परिवर्तनों केप-अधिनियमके आधारपर प्रवासपर रोक लगानेवाले विधानका सिद्धान्त स्वीकार कर लिया है।

परन्तु प्रस्तावित संशोधनपर विचारके लिए आम सवालपर गौर करना शायद ही जरूरी है। उपनिवेश-सचिवके प्रस्तावमें बाजार-सूचना ही अमलमें लाई गई है, हालांकि मेरे संघकी विनीत सम्मतिमें उससे न्यायका मूल सिद्धान्त तबतक पूरा नहीं होता जबतक

  1. यह पत्र, जो प्रिटोरियाके असोसिएटेड चेम्बर्स ऑफ कॉमर्सके सदस्योंको संबोधित किया गया था, २४-१२-१९०३ के इंडियन ओपिनियनमें प्रकाशित हुआ था। यह दादाभाई नौरोजीको भी भेजा गया था, जिन्होंने इसकी एक प्रति भारत-मंत्रीको भेजी थी।