७०. ट्रान्सवालके व्यापार-संघ और ब्रिटिश भारतीय
अन्यत्र हम ब्रिटिश भारतीय संघ द्वारा ट्रान्सवालके व्यापार-संघोंके सदस्योंके नाम भेजे गये गश्तीपत्रको[१] ज्योंका-त्यों प्रकाशित कर रहे हैं। उनका सम्मेलन गत १८ तारीखको प्रिटोरिया में हुआ था और रैंड डेली मेलने उसकी कार्रवाईका विवरण प्रकाशित किया है। इसे पढ़नेपर ज्ञात होगा कि सम्मेलनमें उपस्थित प्रतिनिधियोंपर उस गश्तीपत्रका कोई असर नहीं हुआ। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि उपनिवेश-सचिवने प्रस्तावित संशोधनपर विचार मुल्तवी करनेका निर्णय बहुत देरसे—ऐन वक्तपर—किया था, इसलिए गश्तीपत्र भी बहुत देरसे भेजा गया। गश्तीपत्रमें यह विशेष स्पष्ट रूपसे बताया गया है कि यदि लड़ाईसे पहले बगैर परवाने व्यापार करनेवाले भारतीयोंके निहित स्वार्थोंकी रक्षा करना उचित है, तो लड़ाईके बाद पैदा हुए ऐसे स्वार्थोंकी रक्षा करना और भी अधिक उचित है। पत्रमें युद्ध पूर्वको डचेतर गोरा समितिको भारतीय समाजने जो सहयोग दिया था, उसका भी उल्लेख था। उसका असर भी सदस्योपर होना चाहिए था। अपनी निजी जानकारीके आधारपर हम कह सकते हैं कि समितिके नेता बहुत चाहते थे कि इंग्लैंडकी सरकारको आवेदनपत्र भेजनेमें भारतीय उनका साथ दें। उस समय भारतीयोंपर लगाई गई निर्योग्यताओंपर विशेष रूपसे चर्चा हुई थी और सब इस बातको मानते थे कि अगर लड़ाई हुई तो ये निर्योग्यताएँ खत्म हो जायेंगी। इसलिए सम्मेलनके सदस्योंको यह शोभा नहीं देता कि अब वे उलट पड़ें और भारतीयोंके विरुद्ध ऐसी कड़ी कार्रवाईका सुझाव दें जिसका लड़ाईसे पहले बुरेसे-बुरे दिनोंमें सपने में भी खयाल नहीं था। इस प्रकारके सुझावोंके पक्षमें सदस्योंने जो दलीलें पेश की वे अत्यन्त लचर थीं, और कुछ तो विकृत तथ्योंपर आधारित थीं। हम यह खयाल पैदा करना नहीं चाहते कि तथ्योंकी यह तोड़-मरोड़ जाबूझकर की गई थी। उसका कारण शायद यह भी हो कि वक्ता किस चीजको निष्पक्ष दृष्टिसे देखनमें असमर्थ ही थे; परन्तु हम तो कहते हैं कि वक्ताओं द्वारा गई कुछ बातें बिलकुल निराधार थीं। जिम्मेवार पदोंपर काम करनेवाले आदमी अपनी सार्वजनिक हैसियतमें ऐसी-ऐसी बातें गढ़ लें, जिन्हें खानगी रूपमें बिना जांच-पड़ताल किये कहने में उन्हें खुद बड़ी लज्जा अनुभव हो, यह समयका ही प्रतीक है। खबर है कि, सम्मेलनके अध्यक्षने कहा:
बारबर्टनके धनी भारतीय शहरके प्रमुख व्यापारियोंके पास गये थे। इन भारतीयोंने उनसे विनती की थी कि वे मकानात और परवाने प्राप्त करनेके उद्देश्यसे उन्हें अपने नामोंका उपयोग करने दें। एक भारतीयने यहाँतक डींग हाँकी कि अगर उसे परवाना मिल जाये तो वह एक वर्ष भरके अन्दर-अन्दर काफिरोंके बीच व्यापार करनेवाले हर गोरेका बोरिया-बिस्तर बँधवा देगा।
अब हम बगैर किसी झिझकके कह सकते हैं कि इस कथन में रत्ती भर भी सत्य नहीं है। बारबर्टनमें धनिक भारतीय हैं ही नहीं। वहाँ भारतीय व्यापारी बहुत थोड़े हैं। और जो हैं, वे केवल बस्तीमें ही रहते हैं। शहरके अन्दर कोई भी भारतीय व्यापारी नहीं बसा है। जो गिनतीके भारतीय व्यापारी बस्तीमें कुछ व्यापार कर रहे हैं, वे इतने गरीब हैं कि व्यापार-संघके
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