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ट्रान्सवालके व्यापार-संघ और ब्रिटिश भारतीय

अध्यक्षने उनपर जिस महत्त्वाकांक्षाका आरोप लगाया है, वे उसका सपना भी नहीं देख सकते। बस्तीके अधिकांश निवासी फेरीवाले हैं। इसलिए व्यापार-संघके अध्यक्षको हमारी चुनौती है कि वे उस भारतीयका नाम बतायें जिसने, कहा जाता है, बारह महीनेके अन्दर-अन्दर काफिरोंके बीच व्यापार करनेवाले हर गोरे दुकानदारको निकाल बाहर करनेकी डींग हाँकी है। अध्यक्षने यह पँवाड़ा भी गाया:

उनका इरादा यह नहीं है कि वे किसी दुश्मनीके भावसे … सरकारसे इसको शिकायत करें। परन्तु उनका रुख पूरी तरहसे देशप्रेमी और मित्रका-सा होना चाहिए। दूसरे शब्दोंमें मानो वे कहना चाहते हैं—'सज्जनो! आप क्या करनेवाले हैं, इसका जरा ध्यान रखिए। अच्छा हो, आप सावधान रहें, क्योंकि यह बड़ी गम्भीर बात है। इस विषयमें इस देशको जनताको भावनाएँ कितनी तीव्र और गहरी है। उसका आपको गुमान नहीं है। यह ऐसा प्रश्न है, जिसपर सारे देशकी जनता सरकारके खिलाफ एक हो सकती है। अगर सरकार गोरोंके विरोधमें रंगदार जातियोंका पक्ष ग्रहण करती है तो यह अत्यन्त गम्भीर मामला हो जाता है।'

ये भले आदमी व्यापारी है और इस मामले में इनका अपना स्वार्थ भरा पड़ा है। ये अगर बना सकते तो तमाम प्रतिस्पर्धियोंका बहिष्कार करनेके लिए अपना एक गिरोह बना लेते। इनको ऐसी बातें कहते देखकर हमें हँसी आती है। ऐसी भाषामें सारे समाजकी तरफसे ये बोल रहे हैं मानो, खरीदारोंके और इनके स्वार्थ एक ही हों। अध्यक्ष कहते है कि इस विषयमें जनताकी भावनाएं कितनी तीव्र और गम्भीर हैं, उसका किसीको विश्वास भी नहीं हो सकता। परन्तु वे भूल जाते हैं कि भारतीयोंका व्यापार एक बहुत बड़ी हदतक गोरे ग्राहकोंपर ही निर्भर करता है। अगर उनकी भावनाएँ इतनी तीव्र है तो वे अभीतक इन भारतीय व्यापारियोंको अपना सहारा कैसे देते हैं? अगर भारतीयोंका बहिष्कार करना इन व्यापारियोंके हाथोंमें है, तो भारतीयोंको तंग करके उपनिवेशसे भगा देनेके उद्देश्यसे भला इस तरह कानूनोंका सहारा लेनेकी क्या जरूरत है? बहुत से पाठकोंके लिए यह एक नई खबर होगी कि सरकार रंगदार जातियोंका पक्ष करने लग गई है। अब लॉर्ड मिलनर कह सकते हैं कि वे चक्कीके दो पाटोंके बीच पिस रहे हैं। क्योंकि एक तरफ भारतीय कहते है कि लड़ाईसे पहले उनके साथ जैसा व्यवहार होता था अब सरकार उनके साथ उसकी अपेक्षा कहीं बुरा व्यवहार कर रही है और, उधर, इस सम्मेलनके सदस्य कहते है कि सरकारने भारतीयोंको आश्रय दे रखा है।

भारतीय व्यापारी तो मुट्ठी भर है, परन्तु उनकी उपस्थितिसे उत्पन्न परिस्थितिको तिलका ताड़ बना दिया गया है। रंगदार गिरमिटिया मजदूरोंके रूपमें उपनिवेशपर जिस गम्भीर बुराईके छा जानेका खतरा है उसकी हलकेपनसे उपेक्षा कर दी गई है। क्योंकि, सर जॉर्ज फेरारने अध्यक्षको वस्तुत: यह आश्वासन दे दिया है कि इन गिरमिटिया मजदूरोंको स्थायी रूपसे यहाँ हरगिज नहीं बसने दिया जायेगा और इसके लिए हर सम्भव सावधानी बरती जायेगी। हम तो समझते हैं कि अगर इस देशकी जनताको एक आवाजसे सरकारका किसी मामलेमें विरोध करना चाहिए तो वह निस्सन्देह यह गिरमिटिया मजदूरोंका मामला है।

सम्मेलनमें जो प्रार्थनापत्र भेजनेका निश्चय किया गया और जो प्रस्ताव स्वीकृत किये गये, उनके बारेमें हम कुछ भी नहीं कहेंगे। वहाँ विभिन्न वक्ताओंने जो भाषण दिये, उनके ये दोनों बातें अनुरूप ही हैं। प्रार्थनापत्रमें "गोरी और रंगदार जातियोंके मिश्रण" पर बहुत कुछ कहा गया है। क्या हम इस सम्मेलनके सदस्योंको बता दें कि जहाँतक ब्रिटिश भारतीयोंका