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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

सम्बन्ध है यह बात वस्तुत: कहीं नहीं पाई जाती? अगर भारतीयोंका किसी बातपर सबसे अधिक आग्रह है तो वह एक बात—जातिकी शुद्धता—ही है। परन्तु आप इस बातको विवादका विषय क्यों बनाते हैं? हम तो बहुत जानना चाहते हैं कि अबतकका पिछला इतिहास क्या है और प्रार्थनापत्र भेजनेवालोंका अनुभव क्या है?

स्वीकृत प्रस्तावोंमें से एक "किसी विधानको, जो ऐसे सिद्धान्तको वृथा बना दे, अत्यन्त भय और घृणासे देखता है।" यह वस्तुत: बहुत ही हँसीके लायक बात है। सदस्य एक ऐसी बातसे अत्यन्त भयभीत है जिसका कहीं अस्तित्व ही नहीं है। लॉर्ड एलेनबरोने कहा था कि अफगान युद्धके दिनोंमें कुछ लोग ऐसे थे जिनको गुबरीलेकी आवाज सुनकर खयाल होता था कि उन्होंने तोपोंकी गड़गड़ाहट सुनी है। इस सम्मेलनके सदस्योंकी हालत प्रत्यक्षत: कुछ ऐसी ही हो गई जान पड़ती है। क्योंकि अभीतक तो ऐसा कोई कानून जनताको नहीं दिया गया है और जहाँतक हमें पता है जिस कानूनकी बड़ी आशायें दिलाई जा रही हैं वह अगर बन भी गया तो वह भारतीयोंकी दृष्टिसे वर्तमान कानूनकी अपेक्षा कहीं बुरा होगा। सदस्योंने यह तो खयाल कर ही लिया होगा कि अभी उपनिवेश-सचिवने जो संशोधन रखा है, वह यह कानून नहीं है—मुख्यतः तब जब कि उपनिवेश-सचिवने बहुत स्पष्ट रूपसे बता दिया था कि इस बाजार-सम्बन्धी सूचनाका व्यापक प्रश्नपर सचमच क्या असर पड़ेगा।

ट्रान्सवालके विभिन्न व्यापार-संघोंके सदस्योंसे हमारा आग्रहपूर्वक अनुरोध है कि वे ब्रिटिश भारतीय-संघ द्वारा भेजे गये गश्तीपत्रके प्रारम्भिक अनुच्छेदोंपर निर्विकार चित्तसे विचार करें। उसमें जो दो बातें कही गई हैं वे यूरोपीय दृष्टिकोणसे बिलकुल कारगर समझी जानी चाहिए। नगर-परिषदों अथवा नगर-निकायोंमें अधिकतर व्यापारी ही हैं। भारतीय कहते हैं—"परवानोंके विषयमें हमारा पक्ष इतना न्यायोचित है कि हमें अपने मामलोंका निर्णय आपके हाथोंमें सौंपने और उसको मानने में जरा भी संकोच या झिझक नहीं है, बशर्ते कि आप अपने निर्णयके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालयमें अपील करनेके हमारे अधिकारको छीन न लें। जहाँतक नये बसनेवालोंका सवाल है, हम बिलकुल सहमत हैं कि श्री चेम्बरलेनने उपनिवेशोंके प्रधान-मन्त्रियोंके समक्ष भाषण देते हुए जो बातें कही थीं उनकी दिशामें उनपर अवश्य उचित नियन्त्रण लगाये जा सकते हैं। अगर आप इस नीतिपर चलेंगे तो न्यूनाधिक परिमाणमें आप ब्रिटिश परम्पराओंकी रक्षा कर लेंगे।"

हमारी विनीत सम्मतिमें, इस स्थितिपर किसीको विरोध नहीं हो सकता। हम व्यापारसंघोसे विनती करेंगे कि कुछ समय निकाल कर वे इस प्रश्नपर विचार करें और उसके बाद अपने-आपसे खुद ही पूछे कि क्या यह समझौता उचित नहीं है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २४-१२-१९०३