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७१. अपने संशोधनपर श्री डंकन

ट्रान्सवालके एशियाई विरोधी कानूनका जो योग्यतापूर्ण, सहानुभूति-भरा और ऐतिहासिक विवेचन उपनिवेश-सचिवने[१] किया, उसके लिए वे बधाईके पात्र है। अपने संशोधनके पक्षको जोरदार बनानेमें स्वभावतः उन्हें कोई कठिनाई नहीं हुई। बड़े विश्वासजनक ढंगसे उन्होंने बताया कि ब्रिटिश भारतीय ट्रान्सवालमें कानूनके खिलाफ भी जो व्यापार कर सके, उसका एकमात्र कारण श्री क्रूगरके शासन-कालमें उन्हें ब्रिटिश सरकारकी तरफसे प्राप्त संरक्षण था। इसलिए अगर उन्हें बस्तियोंमें ठेल देना उचित भी हो, तो भी अब सरकार अपने कदमोंको वापस लेकर ऐसा नहीं कर सकती। जैसा कि उन्होंने बताया, यह प्रश्न भावुकता या नीतिका नहीं, विशुद्ध न्यायका है। इसलिए उन्होंने सदस्योंसे, और उनके द्वारा सामान्यतः ट्रान्सवालके लोगोंसे भी, अनुरोध किया कि वे इस प्रश्नपर निर्विकार चित्तसे विचार करें और यह सोवें भी नहीं कि वर्तमान सरकार भारतीयोंके साथ धोखा कर सकती है। दयनीय बात तो यह है कि, सरकारको यह सब पहले नहीं सूझा। यह बात भी आसानीसे समझमें नहीं आती कि वह एक शासन-सम्बन्धी मामलेमें इतनी दौड़धूप क्यों करती है और बाजार-सम्बन्धी सूचनामें संशोधन करनेके लिए परिषदमें क्यों जाती है। श्री डंकनने खुद स्वीकार किया है कि कानूनकी दृष्टिसे बाजार-सम्बन्धी सूचनाका कोई महत्त्व ही नहीं है, क्योंकि उसे कानूनका अंग नहीं समझा जा सकता। हम यहाँ उन्हींके शब्द देते हैं:

सबसे पहले उनको यह याद रखना चाहिए कि यह कानून नहीं बल्कि एक सूचना-मात्र है। इसमें वह नीति बताई गई है, जिसपर सरकार देशके कानूनकी व्याख्याके मामलेमें चलना चाहती है।

इसलिए यह स्पष्ट है कि इस प्रश्नको परिषदमें ले जानेकी जरा भी जरूरत नहीं थी। साधारण मनुष्योंके लिए विधान-परिषदके विभिन्न कार्योके भेदोंको समझना कठिन है जानें कि कानूनकी-सी सत्ता रखनेवाले परिषदके कार्य कौन-से हैं, और दूसरे कार्य कौन-से हैं, जो ऐसी सत्ता नहीं रखते, बल्कि परिषदका केवल मत प्रकट करते हैं। साधारण मनुष्यके विचारमें तो ऐसी सारी सूचनाएँ देशके कानून ही हैं। वे यह भी भूल जाते हैं कि पहले भारतीयोंको वास्तवमें जो अधिकार प्राप्त थे, वे इस सूचना द्वारा छिन गये हैं और नया संशोधन उनमें से कुछ अधिकार वापस दिलानेके लिए पेश किया गया है। वे इसे एक रियायत मानते हैं और इसलिए इसका विरोध करते हैं। उनके साथ आप चाहे कितनी ही दलील कीजिए या उन्हें कितना ही समझाइए, उनके दिमागमें जो खयाल पैदा हो गया है वह नहीं हटेगा। इसलिए हमारा खयाल तो यह है कि पहले तो सरकारने यही गलती की कि वह बाजार-सम्बन्धी सूचनाको परिषदमें ले गई। उसने खुद अपनी मर्जीसे अपने हाथ-पैर बांध लिये हैं और एक अनिष्ट आन्दोलनको पैदा होनेका मौका दिया है। हाँ, अगर सरकारका हेतु यही रहा हो कि ऐसा आन्दोलन सचमुच पैदा हो, ताकि एशियाई-विरोधी नीतिपर अमल करने में उसके हाथ मजबूत हों, तो बात दूसरी है। परन्तु उपनिवेश-सचिवका भाषण इस तरहकी राय बनानेसे हमें रोकता है।

फिर, अपने प्रस्तावके पक्षमें इतना कायल कर देनेवाली दलील देने के बाद समझमें नहीं आता कि उपनिवेश-सचिवने अपवादोंमें उन भारतीयोंको भी क्यों नहीं शुमार कर लिया,

४-७

  1. श्री पैट्रिक डंकन।