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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

जिन्हें पिछले वर्ष बगैर किसी शर्तके परवाने दे दिये गये थे, यद्यपि वे लड़ाईसे पहले व्यापार नहीं करते थे। उन्होंने अपने प्रभावशाली तर्कका आधार ब्रिटिश सरकारके पिछले कार्योंको बनाया। वही दलील अभी ऊपर बताये व्यापारियोंके मामले में और भी अधिक अच्छी तरह लागू होती है, जिनके लिए जोहानिसबर्गका ब्रिटिश भारतीय संघ इतना प्रशंसनीय प्रयत्न कर रहा है। पिछले वर्ष जिन भारतीयोंको परवाने दिये गये थे, अगर उनको बस्तियोंमें भेजा गया तो वह भी ब्रिटिश सरकार द्वारा किये गये एक कार्यको पलटना ही कहा जायेगा। श्री चेम्बरलेनने हमें आश्वासन दिया है कि एक ब्रिटिश अधिकारीके लेखका वही महत्त्व होता है, जो बैंकके नोटका होता है। सो, इन व्यापारियोंके परवाने नोट हैं, जिनपर दस्तखत करनेवाले ब्रिटिश अधिकारी ही थे। हमने इनमें से बहुत-से परवाने देखे हैं और एकपर भी हमने किसी प्रकारकी शर्त नहीं पाई है। तब उनको दूसरे परवानोंसे अलग क्यों माना जाता है? ये बातें ऐसी हैं जिनपर सरकारको विचार करना उचित था। हम पहले कह चुके हैं कि सरकारको न्याय करने में डर लगता है और चूंकि प्रस्तावित संशोधनपर बॉक्सबर्ग और बारबर्टनमें इतना शोर-गुल हो रहा है, इसलिए बहुत सम्भव है, सरकार सोचती हो कि ब्रिटिश भारतीयोंके साथ समानता और न्यायका व्यवहार करनेके झगड़ेमें पड़कर उसे अब लोगोंका बुरा नहीं बनना चाहिए। परन्तु ब्रिटिश झंडेको अपना कहनेवाली सरकारोंकी परम्परा तो ऐसी नहीं है; इसलिए हम अब भी आशा करते हैं कि जिन गरीब व्यापारियोंको बस्तियोंमें चले जानेकी हिदायतें दी गई हैं, उनके परवाने बस्तियोंसे बाहर व्यापार करनेके लिए नये कर दिये जायेंगे।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २४-१२-१९०३

७२. ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय

ट्रान्सवालमें लगातार ऐसी उद्वेगकारी घटनाएं हो रही है कि अभी कुछ समय और हमको अपना ध्यान उनकी ओर देना पड़ेगा और दूसरी बहुत-सी बातोंको छोड़ देना होगा, यद्यपि हम उन्हें कुछ स्थान देना चाहेंगे। गत २२ तारीखको विधान परिषदमें जो बहस हुई मनोरंजक और शिक्षाप्रद थी। ट्रान्सवाल-सरकारके भारतीयोंकी स्थितिसे सम्बन्धित रुखकी हमने अनेक बार शिकायत की है। इसलिए इस बार उपनिवेश-सचिवके प्रस्तावपर उसने जो मजबूत रुख इख्तियार किया है उसपर उसे हम तुरन्त धन्यवाद देते हैं। इसपर अगर वह कोई दूसरी तरहका रुख लेती तो सचमुच आश्चर्यकी ही बात होती। फिर भी, अभी हालमें ब्रिटिश भारतीयोंकी स्थिति इतनी अधिक डावाँडोल हो गई थी कि हमें निश्चय नहीं हो रहा था कि सरकार लड़खड़ा नहीं जायेगी और स्वार्थी व्यापारियोंके दबावसे झुककर अपने प्रस्तावको वापिस नहीं ले लेगी। अन्तमें उसने सर जॉर्ज फेरारके संशोधनको स्वीकार तो कर लिया, परन्तु हमारा खयाल है कि इससे उसने इस प्रश्नपर जो रुख ग्रहण किया है, उसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। उपनिवेश-सचिव और महान्यायवादी (अटर्नी-जनरल) दोनोंने यह पूर्णतया, स्पष्ट कर दिया कि सर जॉर्ज फेरारका सुझाव स्वीकार करनेके मानी ये नहीं हैं कि जो भारतीय लड़ाईसे पहले परवाने लेकर, अथवा बगैर परवानोंके भी, व्यापार करते थे उनके परवानोंको सरकार मानना नहीं चाहती। सर रिचर्ड सॉलोमनने बगैर किसी रू-रियायतके इस बातका बड़ी दृढ़ताके साथ समर्थन किया। विद्वान वक्ता महोदयने कहा: