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ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय


अगर माननीय सदस्य प्रस्तावमें संशोधन नहीं करेंगे तो वे एक बहुत बड़े वर्गके साथ अन्याय करनेके दोषी होंगे। मालूम होता है कि साम्राज्य-सरकारने जो रुख धारण किया है उससे माननीय सदस्योंको आश्चर्य हुआ है। परन्तु भारतीय साम्राज्यके सम्बन्ध, सम्राट्की सरकारको जिम्मेवारियोंका जब हम खयाल करते हैं, और वहाँ बसे करोड़ों लोगोंका और सम्राट्के प्रति उनकी वफादारीका जब हमें ध्यान आता है, तब हमारी समझमें फौरन यह बात आ जाती है कि मनुष्य-मनुष्यके बीच न्यायको तराजूके पलड़े बराबर रखना यहाँ कितना आवश्यक है। लोगोंको साम्राज्यके न्यायपूर्ण शासनमें विश्वास है, तभी तो साम्राज्यमें बसनेवाले इन करोड़ों लोगोंकी वफादारीपर ब्रिटेन भरोसा करता है।

गैर-सरकारी सदस्योंमें से श्री हॉस्केनने बहुत ही सहानुभूतिपूर्ण रुख प्रकट किया और सदनको बताया कि भारतीय-विरोधी आन्दोलन केवल व्यापारियोंतक ही सीमित है और उसमें जोहानिसबर्गका व्यापार-मण्डल शरीक नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि भारतीय व्यापारियोंसे उपनिवेशको किसी प्रकार भी हानि नहीं हो रही है। श्री हॉस्केनने बताया कि जोहानिसबर्गके व्यापार-संघका रुख तो यह है कि लोग भारतीयोंके साथ व्यापार करते हैं, केवल इसीसे सिद्ध हो जाता है कि उनकी यहाँ माँग है। अगर यहाँके लोगोंको भारतीय व्यापारियोंके विरुद्ध सचमुच कोई खास आपत्ति होती तो वे उनका बहिष्कार करते और उनके लिए यहाँ व्यापार करना असम्भव कर देते।

विरोधी पक्षके नेता श्री लवडे और श्री बोर्क थे। श्री लवडेकी बात तो हम समझ सकते हैं। पिछली हुकूमतके जमानेमें भारतीयोंके पक्षमें उन्होंने कभी एक शब्द भी नहीं कहा था। उनकी दृष्टिसे तो भारतीय एक विशुद्ध अभिशाप है; परन्तु हम स्वीकार करते हैं कि श्री बोर्कने जो-कुछ कहा, उसे पढ़ कर हमें बड़ी निराशा हुई। हम उन्हें सदासे ट्रान्सवालका एक उदारमना नागरिक मानते आये हैं; और हमारा खयाल था कि जो भी कोई प्रश्न उनके सामने निर्णयके लिए रखा जाये, उसपर वे निष्पक्षतापूर्वक विचार कर सकते हैं। परन्तु हमारी नम्र राय है कि गोरे व्यापारियोंके स्वार्थोकी रक्षाकी चिन्तामें वे उनके दुर्भावसे प्रभावित हो गये, अन्यथा उनकी कमजोर दलीलका इसके अतिरिक्त दूसरा कोई कारण दिखाई देना कठिन है। यह बात उनकी समझमें ही नहीं आ सकी कि लड़ाईसे पहले ब्रिटिश सरकारने जिन भारतीय व्यापारियोंको पूरा संरक्षण दिया था और जिनको उसके प्रतिनिधियोंने ट्रान्सवालके कानूनोंको तोड़ने और अपना व्यापार जारी रखनेके लिए प्रोत्साहित किया था, उनको अब भी उसी सरकारसे, यद्यपि वह संरक्षण देनेकी और भी अच्छी स्थितिमें है, संरक्षण मिलना जारी क्यों रहना चाहिए। उन्होंने बड़ी स्पष्टताके साथ इस बातको स्वीकार किया कि भारतीयोंके व्यापारका विरोध बोअरोंकी तरफसे नहीं आया था, बल्कि ब्रिटिश व्यापारियोंकी ओरसे आया था। इसलिए वे अब भारतीय स्पर्धाकारियोंसे ब्रिटिश व्यापारियोंके लिए संरक्षणकी माँग करते हैं, भले ही इसके लिए ब्रिटिश भारतीयोंके निहित स्वार्थोंको छीन कर ब्रिटिश सरकारको झुकनेकी जरूरत पड़े। श्री बोर्क बहुत पुराने अनुभवी व्यापारी हैं और व्यवसायीके रूपमें उनकी जानकारी ज्यादा होनी चाहिए। उनको तो ऐसी सामान्य दलील नहीं दुहरानी थी कि अगर भारतीय व्यापारियोंपर रोक नहीं लगाई गई तो वे यूरोपीय व्यापारियोंको क्षेत्रसे भगा देंगे। वे इस बातको भूल ही जाते हैं कि जब उनपर किसी प्रकारका प्रतिबन्ध नहीं था, तब भी वे ऐसा करने में सफल नहीं हुए; और यह भी कि प्रिटोरियामें यूरोपीयोंके व्यापारके मुकाबले भारतीयोंका व्यापार बहुत ही कम है।