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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय


परन्तु हम एक बात और कह दें। अगर यह भय ठीक भी हो तो भी वर्तमान प्रश्नसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि विधान परिषद तो अभी केवल पुराने परवानोंके प्रश्नपर ही विचार कर रही है। उपनिवेश-सचिवके और श्री बोर्कके संशोधनोंके बीच सर जॉर्ज फेरारने एक मध्यम मार्ग सुझाया था। उसका नतीजा यह है कि "लड़ाईसे पहले व्यापार करनेवाले तमाम एशियाइयोंके मामलोंकी जाँच करनेके लिए एक आयोगकी नियुक्ति होगी। इस बीच एशियाई दूकानदारोंको अस्थायी परवाने दे दिये जायेंगे और सरकार एक नये कानूनका मसविदा पेश करेगी, जिसमें केप कालोनीके प्रवासी-अधिनियमके सिद्धान्तोंका समावेश होगा।"

हम इस आयोगकी नियुक्तिका स्वागत करते हैं; क्योंकि हमने सदा यह अनुभव किया है कि वर्तमान परवानेदारोंकी वास्तविक संख्याके बारेमें बड़ी गलतफहमी है और भारतीय व्यापारके परिणामोंको श्वेत-संघ और अन्य संस्थाओंने बहत बढ़ा-चढ़ा कर बताया है। इसलि आयोगकी मददसे इस गलतफहमीको दूर करनेका अवसर मिल जायेगा और हर आदमी जान लेगा कि उपनिवेशमें भारतीय व्यापारकी वास्तविक स्थिति क्या है। भारतीयोंने तो हमेशा यह मांग की है कि उनके कार्योपर रोशनी डाली जाये। अतः हम आयोगके परिणामोंकी प्रतीक्षा बहुत विश्वासके साथ कर रहे हैं। अगर हमारी अपेक्षाएँ सही साबित हुई तो ट्रान्सवालके विचारशील उपनिवेशवासियोंके लिए भारतीय-विरोधी आन्दोलन जारी रखनेका कोई कारण नहीं रह जायेगा, क्योंकि उससे किसी भी पक्षको कोई लाभ नहीं है। उलटे, दोनों समाजोंके बीच, जिनको उचित था कि एक साथ शान्तिपूर्वक रहते, इस आन्दोलनके कारण बेकार भावनाओंकी कटुतामात्र बढ़ती है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ३१-१२-१९०३

७३. ट्रान्सवालके रंगदार रेल-यात्री

जिस दिन श्री डंकनने विधान परिषदमें बाजार-सम्बन्धी सूचनापर अपना संशोधन पेश किया, उसी दिन श्री एच॰ सॉलोमनने रेलोंके रंगदार मुसाफिरोंके सम्बन्धमें अपना प्रस्ताव रखा। यद्यपि उन्होंने जो-कुछ कहा वह प्राय: वतनी मुसाफिरोंके बारेमें ही था, फिर भी उससे बड़ी शिक्षा मिलती है, क्योंकि उससे प्रकट होता है कि "वतनी" और " \रंगदार आदमी" जैसे शब्दोंका पर्याय रूपमें प्रयोग करके उनके अन्तर्गत ब्रिटिश भारतीयोंको भी घसीट लेना कितना आसान है। माननीय सदस्यका प्रस्ताव भी इतना गोल-मोल और पूर्वापर-विरोधी था कि सर रिचर्डको उन्हें फटकार बताने में कोई कठिनाई नहीं हुई, जिसपर श्री सॉलोमनको अपने शब्द वापिस भी लेने पड़े। सर रिचर्डकी आपत्ति यह थी कि अगर वे रंगदार जातियोंके लोगोंको पहले दर्जेमें नहीं बैठने देना चाहते तो दूसरे दर्जे के मुसाफिरोंपर भी उन्हें न लादना चाहिए। इसपर श्री सॉलोमनको स्वीकार करना पड़ा कि वे इस तरहकी कोई बात कहना नहीं चाहते थे। उनका खयाल था कि रंगदार जातियोंके लिए उसी दर्जे में अलग प्रबन्ध रहे।

हम सर रिचर्डसे इस बातमें सहमत हैं कि यह प्रस्ताव असामयिक है और इससे अकारण ही कटुता और दुर्भावना फैलेगी। अगर गोरे मुसाफिर पसन्द नहीं करते कि रेलों में वतनी आदमी अथवा एशियाई उनके डिब्बोंमें सहयात्रीके तौरपर सफर करें, तो हमारी रायमें फूटसे बचने और रंगदार यात्रियोंके लिए अलग डिब्बोंकी व्यवस्था करने में ही समझदारी होगी, जिससे